Friday, December 14, 2007

नहाते हुए चाँदनी

प्रासाद के आंगनों में खिली, फूल सी खिलखिलाते हुए चाँदनी
रात की खिड़कियों पे थिरकती रही, दीप सी झिलमिलाते हुए चाँदनी
कल्पना की सुचिर वीथियों में मगर, एक ही आस है, एक ही प्यास है
आपकी देह की रंगतों से धुले, पूर्णिमा में नहाते हुए चाँदनी

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भाव आते नहीं चाँदनी रात में, गीत कैसे लिखूँ तुम कहो प्यार के
एक हल्की सी नाज़ुक सी पागल छुअन का हुआ धमनियों में जो संचार के
उंगलियां काँपती हैं उठाते कलम, शब्द के चित्र बनते नहीं पॄष्ठ पर
कोशिशें करते करते थका भोर से, राग सँवरे नहीं वीन के तार पे

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Wednesday, December 12, 2007

कोई अपना यहाँ

अरसे के बाद भारत आना हुआ और महानगर के चौराहों के बीच अपनेपन की तलाश भटकती रही. कुछ सोत्र बँधते रहे और दिलासे की डोर को मज़बूत करते रहे. सन्नाटे की आदत ने शोर को असह्य बनाने की पूरी कोशिश तो की परन्तु अपनेपन के स्पर्श ने उसे असफ़ल ही रहने दिया. ऐसे ही क्षणों में कुछ पंक्तियों का सॄजन हुआ

शोर सीसा है कानों में पिघला हुआ
और गुब्बार बन कर उमड़ता धुंआ
पंक्तियों में ववंडर खड़े धूल के
फिर भी संतोष है कुछ है अपना यहाँ

इस तरफ़ हार्न है, उस तरफ़ चिल्ल-पौं
चीखती सी लगे है हवा बह रही
राह पर धड़धड़ाते हुए इक धमक
शांति दुश्वार है बस यही कह रही
वाहनों में भयंकर है स्पर्धा लगी
किसकी आवाज़ किससे अधिक तेज है
चीखते से सभी आज गतिमान हैं
और सहमी हुई राह चुप हो खड़ी

और विश्राम का पल रुका जो अगर
शोर गुल की बरसती है भीषण अगन
चिपचिपहट गले से लिपटने लगे
फिर भी संतोष है कोई अपना यहाँ

एक चौराहे पर आ खड़ी हो गई
राह चलते हुए, इक भटकती हुई
ज़िन्दगी ले कटोरा खड़ी हाथ में
अर्धविकसित कली सी चटकती हुई
उम्र के पाँव उठने से पहले गिरे
लड़्खड़ाते हुए ठोकरों को पकड़
एक अँगड़ाई झर कर गिरे बँह से
इससे पहले रखी मॄत्यु ने वह जकड़

थाम सावन की उंगली चला तो सही
राह में किन्तु लगता रुका है मदन
कोई सन्देह कोई शिकायत नहीं
क्योंकि संतोष है कोई अपना यहाँ

शर्त थी पार्थ आरूढ़ रथ पर रहे
थाम वल्गाओं को सारथी दे दिशा
जय कुरुक्षेत्र में सत्य की बस रहे
चीर कर अग्निबाणों से पावस निशा
किन्तु वल्गाओं को छोड़ प्रासाद में
सारथी आज सिंहासनों पर मगन
और परछाईयों में घिरे शून्य की
छटपटाते नयन में पले सब सपन

अपना अस्तित्व कर होम जीते हुए
धैर्य की रात दिन दे परीक्षा रहे
फिर भी उम्मीद की इक किरन शेष है
हमको संतोष है कोई अपना यहाँ

चाँदनी हर जगह पर बराबर बँटी
किन्तु इस ओर की बात ही और है
साथ अपनत्व की ले मधुरता मिले
पूर्ण ब्रह्मांड में बस यही ठौर है
जिस जगह पर अपरिचय कपूरी बने
और सम्बन्ध निखरें धुले दूध से
बस यही एक प्रांगण जहां हर घड़ी
यामिनी बात करती मिले धूप से

रोज आशायें हो कर रहें बलवती
फूल झरते रहें और कलियँ खिलें
हो अभावों के साये घिरी वाटिका
किन्तु संतोष है, कोई अपना यहाँ

Wednesday, December 5, 2007

क्या संबोधन दोगे

कई बार ऐसा होता है कि कोई समाचार या घटना सहसा ही कुछ न कुछ लिखवा देती है और ऐसी परिस्थितिजन्य रचनायें क्या स्थान पाती हैं यह सुनिश्चित नहीं होता. ऐसे ही एक कहानी से प्रेरित यह रचना स्वत: ही शब्दों में ढली है जिसे बाँट रहा हूँ

कोई नीलकंठ कहलाता एक बार ही बस विष पीकर
मिला न हमको कभी नाम कुछ, हम विष नित्य पिया करते हैं

वचनामॄत किसको कहते हैं, हमने कभी नहीं ये जाना
जो भी शब्द सुना उसमें ही घुला हुआ होता है ताना
कुछ उलाहने, कुछ शिकायतें और साथ कुछ दोषारोपण
मंथन से मिलता है केवल एक हलाहल हमने माना

हमने अभिमंत्रित जल कहकर किया आचमन हर उस द्रव का
जो हमको जाने अनजाने चेहरे नित्य दिया करते हैं

विष उपेक्षा वाला हर दिन संध्या भोर दुपहरी पीते
और अपैरिचय वाले विष में लिसी हुई सांसों को जीते
एकाकीपन के विष से हम धड़कन धड़कन भरे हुए हैं
और किया करते हैं लमहे लम्हे उसके शतघट रीते

जो अमॄत पीकर जीते हैं, पूज्य देवता वे कहलाते
हमको क्या संबोधन दोगे, हम पी ज़हर जिया करते हैं

सुकरातों में, मीराओं में, तुमने सदा हमीं को पाया
हमीं परीक्षित थे, हमने ही सहज समर्पण को अपनाया
हम संतुष्ट रहे हैं बिंधकर गहन अभावों के विषधर से
कभी आकलन किया नहीं है क्या खोया है क्या क्या पाया

हमें विदित है हम चंदन हैं विष तो मिला घुटी में हमको
गंध-उदय की खातिर ही तो हम हर जन्म जिया करते हैं

Saturday, December 1, 2007

प्रगति पंथ पर

पिछले दिनों भारत यात्राअ के दौरान ऐसा भी हुआ कि २ दिन तक दिल्ली की जल-व्यवस्था ठप्प हो गई. नहाने की बात तो छोड़िये, पीने के लिये भी पानी आधी दिल्ली से नदारद था. साथ ही साथ बिजली भी आँख मिचौनी खेलने पर उतारू थी. ऐसे मौके पर अचानक एक पत्रकार की आत्मा
कुछ पल के लिये भटकते हुए हमारे पास आ गई और उसने जो लिखवाया वह बिना किसी संशोधन के प्रस्तुत है. कॄपया इसे गंभीरता से न लें

दिल्ली की सत्ता अगस्त्य बन
निगल गई सारी धारायें
और निवेदन ठुकरा देती
है बेचारे भागीरथ के
जमना एक रोज उमड़ी थी
द्वापर में, ये कभी सुना था
लेकिन आज छुपी है वह भी
नीचे रेती की तलहट के

ताल वावड़ी कुँए सूखे
हर राही हैरान खड़ा है
और देखता केवल नारे-
प्रगति पंथ पर देश बढ़ा है

इन्द्र देव के वज़्र अस्त्र में
सिमट गई बिजली भी जाकर
निगल गये वंशज सूरज के
तम की सत्ता के सौदागर
ज्योति पुंज की अथक साधना
ध्रुव के कोई काम न आई
लगता है नचिकेता ने भी
चुप रहने की कसम उठाई

वो दीपक भी कहीम सो गया
जोकि तिमिर से सदा लद़्आ है
इस सबसे क्या, उधर देख लो
प्रगति शिखर पर देश चढ़ा है

उमर कटोरा लिये हाथ में
खड़ी हुई है चौराहों पर
दरवेशी जितने थे चल्ते
सब ही आज अलग राहों पर
इधर बंद है, उधर दंभ है
सबकी अपनी अपनी सत्ता
और बेचारा आम आदमी
बना हुआ त्रेपनवां पत्ता

हर आशा का फूल, खिले बिन
उपवन मेम चुपचाप झड़ा है
लेकिन असली बात यही है
प्रगति पंथ पर देश बढ़ा है

Tuesday, November 20, 2007

खो गये चाँदनी रात में

चाँदनी रात के हमसफ़र खो गये चाँदनी रात में
बात करते हुए रह गये, क्या हुआ बात ही बात में

ज़िन्दगी भी तमाशाई है, हम रहे सोचते सिर्फ़ हम
देखती एक मेला रही, हाथ अपना दिये हाथ में

जिनक दावा था वो भूल कर भी न लौटेंगे इस राह पर
याद आई हमारी लगा आज फिर उनको बरसात में

जब सुबह के दिये बुझ गये, और दिन का सफ़र चुक गया
सांझ तन्हाईयां दे गई, उस लम्हे हमको सौगात में

तालिबे इल्म जो कह गये वो न आया समझ में हमें
अपनी तालीम का सिलसिला है बंधा सिर्फ़ जज़्बात में

आइने हैं शिकन दर शिकन, और टूटे मुजस्सम सभी
एक चेहरा सलामत मगर, आज तक अपने ख्यालात में

मेरे अशआर में है निहाँ जो उसे मैं भला क्या कहूँ
नींद में जग में भी वही, है वही ज्ञात अज्ञात में

ये कलांमे सुखन का हुनर पास आके रुका ही नहीं
एक पाला हुआ है भरम, कुच हुनर है मेरे हाथ में

ख्वाहिशे-दाद तो है नहीं, दिल में हसरत मगर एक है
कर सकूँ मैं भी इरशाद कुच, एक दिन आपके साथ में

Tuesday, November 13, 2007

गोष्ठी के बाद की रचना

कल शाम सुनीता जी ने अपने निवास पर एक गोष्ठी का आयोजन किया और चिट्ठाकारों से साक्षात करने का अवसर दिया. अरुण जी, नीलिमाजी , सुजाताजी, मोहिन्दर, संजीत सारथी के साथ साथ लालजी श्री समीर लाल, अजय,अविनश वाचस्पति, शैलेश और निखिल आदि से मुलाकात हुई. काकेश,सॄजन शिल्पी और प्रत्यक्षा की प्रतीक्षा गोष्ठी के अंतिम चरण तक रही. डा०कुंअर बेचैन, महेश जी और दिनेश रघुवंशी को सुनने का अद्वितीय मौका मिला.

इन सभी को सुनने के बाद लेखनी अपने अप कह उठी

छंद के बंद आते नहीं हैं मुझे, इसलिये एक कविता नहीं लिख सका
लोग कहते रहे गीत शिल्पी मुझे, शिल्प लेकिन नयाएक रच न सका
फिर भी संतोष है तार-झंकार से जो उमड़ती हुई है बही रागिनी
शब्द की एक नौका बहाते हुए,साथ कुछ दूर तक मैं उसे दे सका

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बोझ उसका है कांधे पे भारी बहुत, जो धरोहर हमें दी है वरदाई ने
और रसखान की वह अमानत जिसे, बांसुरी में पिरोया था कन्हाई ने
हमको खुसरो के पगचिन्ह का अनुसरण नित्य करना है इतना पता है हमें
और लिखने हैं फिर से वही गीत कुछ, जिनको सावन में गाया है पुरवाई ने

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लेखनी किन्तु अक्षम हुई है लगा शब्द से जोड़ पाती है नाता नहीं
मन पखेरु चला आज फिर उड़ कहीं, गीत कोई मगर गुनगुनाता नहीं
जो न संप्रेष्य होता स्वरों से कभी भाव, अभिव्यक्तियों के लिये प्रश्न है
भावनाओं का निर्झर उमड़ता तो है, धमनियों में मगर झनझनाता नहीं

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कांपते हैं अधर, थरथराती नजर, कंठ में कुछ अटकता हुआ सा लगे
और सीने की गहराईयों में कोई दर्द सहसा उमड़त हुआ सा लगे
चीन्ह पाने की असफ़ल हुईं कोशिशें, कोई रिश्ता नहीं अक्षरों से जुड़े
मात्रा की छुड़ा उंगलियां चल दिया,शब्द मेरा भटकता हुआ सा लगे

Tuesday, October 23, 2007

ये बनिये का बिल हो लेंगे

आज सुबह गीत कलश पर पढ़ा


आज नयन के पाटल पर जो चित्र बने जाने अनजाने
कल तक इतिहासों के पन्नों में वे सब धूमिल हो लेंगे

तो एकाएक कल्पना उड़ने लगी और सोचा कि अगर इस कल्पना के गीत को यथार्थ के धरातल पर उतरना पड़े तो क्या होगा और चूंकि यह भी तय था कि अगले कुछ दिनों तक समय की मारामारी रहेगी तो उस कल्पना ने सहज ही शब्दों में ढल जाने का निर्णय ले लिया. अब क्योंकि यह कल्पना का निर्णय था और मेरा इसमें कोई योगदान नहीं है तो लिहाजा कल्पना को अपने आप पोस्ट करने से भी तो नहीं रोका जा सकता. तो लीजिये मुलाहिजा फ़रमाईये



जो कागज़ तुम लिये हाथ मेम सोच रहे हो प्रेम पत्र हैं
आंख खुलेगी, सारे पन्ने तब बनिये का बिल हो लेंगे

आज मूँछ पर ताव दिये तुम उड़ा रहे हो रबड़ी पुए
चढ़ती हुई उमर का पीछा बन कर ये मधुमेह करेंगे
गुटक रहे जो काजू पिस्ते औ’ बदाम की भरी प्लेटें
शायद विदित नहीं है कल ये रक्त-चाप का रूप धरेंगे

होकर आज शरीके महफ़िल साथ तुम्हारा निभा रहे जो
लेकर जाम-सुराही कल तक ये सब ही गाफ़िल हो लेंगे

खोल टाप कनवर्टिबिल की अस्सी की गति भगा रहे हो
इन्टर्स्टेटों पर, तुमको निश्चित एक टिकट मिल जाना
अभी ज़ुल्फ़ जो लहराती है उड़ी हवा के साथ गाल पर
कोर्टहाउस में वेटिंग करते कल होगा इनको उड़ जाना

वालेट में जो आज तुम्हारे अपनी गर्मी दिखा रहे हैं
कल दिन ढलते तक वकील को ये सब ही हासिल हो लेंगे

Friday, October 19, 2007

टिप्पणियों की ख्वाहिश

शाम को श्री जी आये और आते ही हुकुम दनदनाया, " चलो काफ़ी पिलवाओ बहुत परेशान हैं हम"
हमने पूछा परेशानी की वज़ह क्या है तो बोल पड़े कि इतने दिन हो गये , रोज दफ़्तर में बास की नजर बचाकर, घर में बीबी से झगड़ा करके बिला नागा पोस्ट पर पोस्ट लिखे जा रहे हैं दनादन पर कोई आता ही नहीं टिप्पणी करने को.. कई बार तो हमने एग्रीगेटर के माध्यम से अपने चिट्ठे का कई बार दरवाज़ा खटखटाया ताकि लोग क्लिक की संख्या देख कर ही आ जायें और हमारे चिट्ठे पर टिपिया जायें.

फिर एक पल को ठहर कर बोले, सुनो. हम तुमको अपना मित्र और हितैषी समझे थे पर तुम भी सारे ज़माने की साजिशों में शरीक हो गये हो तभी तो तुम भी हमारे चिट्ठे पर टिप्पणी करने नहीं आते.

हमने श्रीजी को समझाने की कोशिश की :-


प्रतिक्रियायें लोग दें अथवा नहीं उनका चयन है
लेखनी का कार्य है कर्तव्य को अपने निभाना

आप तो लिखे जाईये, सार्थक होगा तो लोग अपने आप आयेंगे टिपियाने के लिये और आपको धमाकेदार, सनसनीखेज शीर्षक भी नहीं ढूँढ़ने पड़ेंगे, जिनके सहारे आप पाठकों को न्यौता भेजते रहें.

लेकिन हमारी बात उनके गले के नीचे नहीं उतरी. हमें लगा कि वे झगड़ा करने पर उतारू हैं तो हमने फिर कहा, " सुनिये आप जानते हैं न कि कुछ प्रविष्टियां ऐसी होती हैं जो न चाहते हुए भी टिप्पणी स्वत: ही करवा लेती हैं और कुछ पर आप चाह कर भी टिप्पणी नहीं कर पाते. "

उन्होने समर्थन में अपना सिर हिलाया तो हमारे हौसलों को थोड़ा मज़बूती मिली. हमने फिर कहा, देखिये हम भी जब जब चिट्ठा जगत में प्रवेश करते हैं, अपने साथ टिप्पणियों का थैला लेकर चलते हैं. परन्तु जानते हैं क्या होता है?

वे बोले, बताओ क्या होता है.

तो हमने कहा लीजिये:



टिप्पणियां हम लिये हाथ में चिट्ठा चिट्ठा घूम रहे हैं
कोई ऐसा मिला नहीं हम जि्स पर जाकर इन्हें टिकाते

यों तो टिप्पणियों की ख्वाहिश लिये हुए था हर इक चिट्ठा
कहता था हर इक पुकार कर आयें आप इधर को आयें
देखें हमने कितनी मेहनत से यह सारे शब्द संजोये
इन पर एक बार तो आकर प्रियवर अपनी नजर घुमायें

उन पर जाकर पढ़ा बहुत कुछ , कुछ तो समझे, कुछ न समझे
लेकिन ऐसा एक नहीं था जिस पर चिप्पी एक लगाते

हां फ़ुरसतिया और पुराणिक या सुबीर के भी चिट्ठे हैं
उड़नतश्तरी, रवि रतलामी, पर सब नजर टिका बैठे हैं
सब बराबरी करना चाहें इनके जितनी मिलें टिप्पणी
ईमेलों से भेज निमंत्रण, पलकें पंथ बिछा बैठे हैं

लेकिन उड़नतश्तरी वाले, हम, समीर से नहीं हो सके
जो हर इक चिट्ठे पर जाकर अपना अनुग्रह सहज लुटाते

अस्सी मिनट सिरफ़ गिनती के, जिनमें पढ़ना है लिखना है
और रोज चिट्ठों की संख्या को भी तो बढ़ते रहना है
चाहा सब पर करें टिप्पणी , लेकिन उपजी नहीं प्रेरणा
दो दर्जन न समझ आ सके, उफ़ बाकी का क्या कहना है

प्रत्यक्षा काकेश सभी ने हमको समीकरण समझाया
लेकिन हमें न कुछ मिल पाया हम जिसको जाकर लौटाते

बस साहब, अब आप ही बतायें कि हम क्या करें ?


Friday, October 12, 2007

अब न कुछ भी लिखा जा सके

व्यस्तताओं ने जकड़ा है अस्तित्व यों, भाव आते नहीं गीत बनता नहीं
रात की सेज पर लेटता हूँ मगर आंख में कोई सपना संवरता नहीं
गीत दोहे गज़ल सोरठे कुंडली, सबको आवाज़ देते थका हूँ मगर
लेखनी का सिरा थाम कर कोई भी सामने मेरे आकर उतरता नहीं

Wednesday, October 3, 2007

क्या क्या न किया तेरे लिये ओ----

अब क्योंकि एक नाम से पोस्ट करे तो लोग पढ़ें या न पढें यह समस्या रहती है. समाधान ये कि एक ही पोस्ट को अलग अलग नामों से किया जाये तो कोई न कोई तो पढ़ेगा ही. देखें

http://vikashkablog.blogspot.com/2007/10/blog-post_02.html

और

http://iitbkivaani.wordpress.com/2007/10/02/%e0%a4%b8%e0%a4%b0%e0%a5%8d%e0%a4%a6%e0%a4%bf%e0%a4%af%e0%a5%8b%e0%a4%82-%e0%a4%95%e0%a4%be-%e0%a4%ae%e0%a5%8c%e0%a4%b8%e0%a4%ae/

जी हाँ रचना एक ही है एक विकास के नाम से और दूसरी वाणी के नाम से. दोनों नारद पर एक ही दिन थोड़ा आगे पीछे आईं हैं. इसका मुख्य कारण तो शायद टिप्पणियों की तलाश ही है जिसके बारे में कई बार लिखा जा चुका है परन्तु सोये हुए पाठकों की उंगलियों में हरकत नहीं होती कीबोर्ड पर ठकठकाने के लिये.

अब हर कोई लाला समीर लाल तो हैं नहीं कि अपनी टिप्पणी लिये हमेशा इन्टर्नेट पर दौड़ता रहें और जैसे ही कोई पोस्ट हो उस प अपनी टिप्पणी का ठप्पा मार दें. जी यह काम भी बड़े जिगर वालों का है ( वैसे बड़े जिगर से परेशानियां भी होती हैं पर उनका ज़िक्र यहाँ जरूरी नहीं है )

कई बार तो बाकायदा निमंत्रनभेजा जाता आपको कि कोई आयें और अपनी टिप्पणी से नवाज़ें. पर हाय री किस्मत ! कुम्भकर्णी नींद में सोये पाठक की चेतना में जुम्बिश का प्रवेश नहीं हो पाता और बिचारी पोस्ट विधवा की मांग की तरह सूनी पड़ी रह जाती है टिप्पणियों के इन्तज़ार में.

अब आप सोच रहे होंगे कि भाई अब तो टिप्पणी करनी ही पड़ेगी लेकिन फिर यह जरूर सोचियेगा कि किस वाली पर करनी है. दोनों पर भी की जा सकती है क्योंकि केवल एक पर करने से डिसक्रिमिनेशन के भागी बन सकते हैं. अब देखिये न टिप्पणी के इन्तज़ार में हमने भी यह सब लिख डाला


नहीं इक प्रेरणा पाई थके हम पोस्ट कर कर के
हुए हैं बेवफ़ा वे भी जिन्हें समझा था हैं घर के

किसी की पोस्ट पर होतीं तिरेपन टिप्पणी देखो
यहां पर एक की खातिर कटोरा हाथ में थामा
न बदले में मिले हमको महज दो बोल आशा के
लुटाईं रिश्वतों में पास की हर एक थी उपमा

लगाई आस बोलेगा कभी तो कोई चढ़ सर पे
हुए हैं बेवफ़ा वो भी जिन्हें समझा था हैं घर के

लिखीं ईमेल पिच्चासी, किये फिर फोन दो दर्जन
नहीं पर हो सका फिर भी किसी के मन का परिवर्तन
रहे हम ताकते, बैरंग खत बन कर सभी लौटे
हमरी पोस्ेट बन कर रह गई गोपाल बस ठनठन

न भूला रास्ता कोई, लगाये दस्तकें दर पे
हुए हैं बेवफ़ा वे भी जिन्हें समझा था हैं घर के

उमीदे टिप्पणी अपनी सभी बस टुट कर बिखरीं
न शुक्लाजी, न प्रत्यक्षा न नारद की कोई तिकड़ी
गई जो पार नभ के तश्तरी, लौटी नहीं उड़ कर
बिचारी पोस्ट देखो रह गई तूफ़ान में छितरी

लिखा कीबोर्ड को हमने ये आँसू में डुबो कर के
मिलेगी दाद जैसे पात कोई पेड़ से झर के



भाई अब तो टिपिया दो नहीं तो हमें भी यही पोस्ट अलग अलग नामों से दस- बारह बार डालनी पड़ेगी

Monday, September 17, 2007

स्वप्न रह गया स्वप्न ही

बात तो कुछ भी नहीं थी बस कुछ दिन पहले दिल्ली की खबर पढ़ी थी जिसमें लिखा था फ़ुरसतिया महाराज अपने मशहूर लड्डुओं के डिब्बे के साथ दिल्ली आये थे तो साहब हमारे मुँह में भी बाढ़ आ गई. इसी दौरान टोरांटो से श्री श्री कुंडली नरेश ने फोन खड़का दिया कि वे दिवाली के फ़ौरन बाद दिल्ली पधारने वाले हैं हमारे पास भी पेंडिंग में ढेरों तकाजे पड़े थे ( अब सब के नाम तो गिनवा नहीं सकते ), इसलिये आव देखा न ताव, फ़ुरसतियाजी के लड्डुऒं और उड़नतश्तरी के प्रोत्साहन ने हमें विवश कर दिया कि हम भी भारत यात्रा का कार्यक्रम बना लें. पर साहब लगता है कि हमने निर्णय लेने में बड़ी भूल कर दी. हमारा निर्णय लेते ही जो हाल हुआ है वह काबिले गौर है. आप देखें और बतायें कि इसका दोष किस माथे पर तिलक की तरह लगाया जाये ?




मित्रों ने रिश्तेदारों ने बार बार था हमें पुकारा
निश्चित हुआ भ्रमण को जाना भारत में इस बार हमारा

जैसे ही छुट्टी की अर्जी की हमने दाखिल दफ़्तर में
हमें बास ने पकड़ लिया, जो गलती से था हिन्दुस्तानी
उसे भेजना था कुछ अपने छोटे भाई के बेटे को
न सुन पाने की आदत थी रही सदा उससे अनजानी

उसने मोबाईल का नम्बर और पता हमको दे मारा

श्रीमतीजी ने घर आते ही हमको इक लिस्ट थमा दी
छह पन्नों पर लिखा हुआ था किस किसको क्या ले जाना है
पाँच भतीजी चार भतीजे तीन भांजी सात भांजे
साला साली, भाई भाभी सब का ध्यान रखा जाना है

अविरल बहती थी सूची हो जैसे इक नदिया की धारा

लैपटाप लेटेस्त माडलों वाले दो, सोनी के लेने
तीन एम पी थ्री प्लेयर चालीस गिग की ड्राइव वाले
डिजिटल चार कैमरे जिनके पिक्सेल भी छह मिलियन तो हों
और फोने दो चिप जिनमें हों जी एस एम की क्षमता वाले

प्रथम पॄष्ठ ही देख लगा है घिघियाने अब बजट हमारा

हों पर्फ़्यूम डिजाइन वाले कुछ डियोर के कुछ शनेल के
एक अंगूठी नगों जड़ी हो जिसे टिफ़ैनी से लाना है
घड़ी ब्रेटलिंग और कार्टिये, इनसे नीचे नहीं उतरना
आखिर को रिश्तेदारी में अपना चेहरा दिखलाना है

एक बार होती फ़रमाईश, कोई करता नहीं दुबारा

लिस्ट अभी आधी देखी थी टोटल खर्चा बीस हजारी
उस पर अभी तीन टिकटों की रकम जोड़नी भी बाकी है
और वहां पर दिल्ली, बम्बई, जयपुर व कलकत्ता जाना
वॄन्दावन जा हमें देखनी कॄष्ण कन्हैया की झांकी है

लिस्ट हाथ से लगी छूटने, हो जैसे तपता अंगारा

हमें गाज़ियाबाद और फिर गुड़गांवा भी तो जाना है
फिर प्रतापनगरी में जाकर कवितापाठ सुनाना होगा
छह गज़लों से चार गीत से शायद काम वहां चल जाये
लखनऊ जाकर लेकिन हमको गीतकलश छलकाना होगा

फ़ुरसतियाजी का सन्देसा दरवाज़े पर आन पुकारा

तभी दूसरी लिस्ट थमाई गई हाथ में हमको लाकर
उसमें था सामान, खरीदारी जो करनी है भारत में
पाँच शरारे, आठ गरारे, दस सलवार सूट रेशम के
पन्द्रह साड़ी, मिल जायेंगी नई सड़क वाली आढ़त में

घंटे वाले हलवाई का मावा लिपटा हुआ छुआरा

और दरीबा दिल्ली वाला जहाँ जेवरों की दुकान हैं
एक सेट हीरे पन्ने का और एक दो मोती वाले
कुन्दन वाला नया डिजाईन मिल जाये तो लेना होगा
चांदी के लाने गिलास हैं बारह, छह थाली, छह प्याले

गर्मी के मौसम में हमको लगने लगा भयंकर जाड़ा

कहा चैकबुक ने ये सब उसके बूते की बात नहीं है
क्रेडिट कार्ड मैक्स आऊट हैं, उनका कुछ भी नहीं भरोसा
छोड़ो अब लड्डू के सपने वो न तुम्हें मिलने पाऒ
बैठो घर पर खाओ प्यारे चार रोज का रखा समोसा

इसी तरह ही सरदर्दी से मिल पाये तुमको छुटकारा
भारत जाना अब तो लगता संभव होगा नहीं हमारा

Monday, September 3, 2007

रसोई और तुम

जो कभी सोचा भी नहीं था, वह हो गया. रचनाधर्मिता के क्षेत्र में बढ़ती हुई
कलमों का प्रभाव अपना विस्तार हमारे घर तक ले आयेगा इसकी हमने कल्पना नहीं की थी.यह निश्चय ही रजनीगंधा,भावना, सीमा,रचना के साथ साथ प्रत्यक्षा और लावण्या का प्रभाव नहीं तो और क्या हैजिसने हमारी आपबीती--
रसोई और हम -- को सिरे से धो कर रख दिया.

उनके वापिस आने के दूसरे दिन ही यह शब्द-समूह हमारे सामने डाल दिया गया. हम
तो निरुत्तर हो गये हैं. जो कहना है आप ही पढ़ कर कहें. लीजिये पेश है- लेखकीय प्रतिक्रिया




सचमुच अबकी बार मुझे भी महंगा पड़ा मायके जाना

वापस आ जब घुसी किचन में, वहीं रह गई खड़ी ठिठक कर
था विश्वास नहीं हो पाया, है ये सचमुच मेरा ही घर
सब कुछ उलट पुलट बिखरा था और काउंटर बना पैन्ट्री
आधा गैलन तेल गिरा था, लगता यहाँ फ़र्श के ऊपर

घर का ये हिस्सा लगता है, मुझको बिल्कुल ही अनजाना

पता नहीं क्या कर डाला है, ओवरफ़्लो हुआ डिशवाशर
कोई बर्तन साफ़ किया है नहीं, कभी भी लगता खाकर
डिश क्लाथ पन्द्रह थे, संग में किचन टावलें पूरी बारह
सब कुछ इधर उधर बिखरा है कुछ भी रक्खा नहीम उठाकर

रग-डाक्टर को मुझे बुलाकर, पूरा कार्पेट धुलवाना

फ़्रिज के दरवाज़े में परतें जमीं दूध की टपक टपह कर
उगा हुआ जंगल फ़फ़ूँद का, क्रीम चीज की पूरी ब्रिक पर
सूख गये क्रिस्पर में सारे, पीच, नेक्ट्रिन, स्ट्राबेरी
और मसाले दानी में बस भरी हुई थी केवल शक्कर

डायनिंग टेबल पर ला छोड़ा, स्क्रूड्रायवर, प्लायर, पाना

तोड़ी आठ प्लेटें, तोड़े शीशे के चौदह गिलास भी
गायब तीन प्यालियाँ चम्मच चार और कुछ छुरी साथ भी
काफ़ी के मगनहीं कहीं भी, बोन चायना के कप खंडित
क्रिस्टल वाली डिश भी तोड़ी, जो पसन्द की मेरी खास थी

कैसे उड़े यहाँ गुलछर्रे, मुश्किल हुआ समझ में आना

फ़्रीज़र में, मैं छोड़ गई थी तीन थैलियाँ भरी पकौड़ी
चार बैग थी स्वाद ब्रांड की फ़्रोज़न लाकर रखी कचौड़ी
पाँच नान के पैकेट भी थे, बीस परांठे आलू वाले
डोंगा भर कर गई बना कर, मैं पनीर के साथ मंगौड़ी

चार पौंड का डब्बा भर कर रखा हुआ था हरा वटाना

आटा सूजी , मैदा, बेसन, डिब्बे हुए सभी के खाली
सारी दालें छूमन्तर थीं, केवल उड़द बची थी काली
कैबिनेट में सिर्फ़ हवा है, झाड़ू लगी सभी खानों पर
ये बेतरतीबी सोच रही हूँ कैसे मुझसे जाये संभाली

हफ़्ते भर का काम हो गया, पूरा किचन मुझे संगवाना

रसगुल्ले, गुलाबजामुन की कैन रखीं थीम सभी नदारद
रिट्ज़. क्लब क्रैकर के डब्बे, हुए कहाँ पर जाने गारद
चिप्स एहोय, ओरियो का तो चूरा तक भी बचा न बाकी
न्यूट्रीशन के लिये न जाने कैसी बुद्धि दे गई शारद

फिर से नये सिरे से सब कुच, मुझे पड़ेगा अब समझाना

सचमुच अबकी बार बहुत ही महँगा पड़ा मायके जाना

Wednesday, August 29, 2007

समीर भाई- यह बरस भी शुभ हो

लिखूँ बधाई और साथ में केक आपको भेज रहा हूँ
ताकि बाँट कर सबसे खायें, और शिकायत कोई करे न
सबसे छुप कर वर्ष गाँठ जो प्रणय दिवस की मना रहे हो
शायद सोचा तुम्हें तकाजा मिष्ठानों का कोई करे न










इतिहासों में लिखा हुआ है स्वर्ण- पत्र पर
जब समीर की पूर्ण हुई थी सतत साधना
यज्ञभूमि उसकी स्मॄतियों से महक रही है
यदों में खो, पुलक र्ही है अभी भावना
यह सुरभित पल बरस बरस हों और घनेरे
जहाँ स्पर्श हो, बहीं खिल उठे पुष्प-वाटिका
दुहराता है आज पुन: इस पावल दिन पर
पोर पोर मेरे मन का बस यही कामना

Wednesday, August 22, 2007

जंतर-मंतर: अपनी किस्मत बदलवा लें

हुआ यूँ कि कान्फ़्रेंस से वापिस आकर काम पर पहुँचते ही पहला प्रश्न हमारी ओर उछलता हुआ आया- कितना जीते कितना हारे ?

क्योंकि आफ़िस में सभी को पता था कि हमारी कान्फ़्रेंस लास वेगास में थी तो यह प्रश्न स्वाभिविक ही था. बड़े सकुचाते सकुचाते हमने उत्तर दिया कि हमें तो वहाँ कैसीनो जाने का समय ही नहीं मिला तो यकायक किसी को हमारी बात पर विश्वास नहीं हुआ. अब कैसे समझाते कि सुबह सात बजे से शाम छह बजे तक कान्फ़्रेंस के सेशन्स और उसके बाद साढ़े छह बजे से दस बजे तक की डिनर मीटिंग्स ने दिन के खाते में इतना समय छोड़ा ही नहीं कि क्रेप, रालेट , ब्लैकजैक या स्लाट्स पर अपनी किस्मत आजमाते.




घर वापिस आकर टीवी आन किया और फिर अपनी अगली कान्फ़्रेंस की रूपरेखा बनाने लगे कि सामने ज़ी टीवी पर आते हुए विज्ञापन ने हमें झकझोर दिया- हे मूर्ख, अपनी किस्मत बदल. फ़ौरन बाबा महाराज को फोने कर और देख गारंटी के साथ सात दिनों में कैसे तकदीर पलटती है हमारे ज्ञान चक्षु खुल गये और निश्चय कर लिया कि लास वेगास जाने से पहले अपनी किस्मत बदलवा लें . तो साहब






हम पे विज्ञापनों का हुआ यूँ असर
भाग्य की रेख को हम बदलने चले

पीर साहब को सत्रह किये फोन फिर
वेवसाइट पे बाबा की लाग इन किया
भेजी ईमेल पंडितजी महाराज को
पिर जलाया दिया, ज्योतिषी का दिया
स्वामीजी के दिये जंत्र बाँधे हुए
मंत्र पढ़ते लगे हर घड़ी रात दिन
और जैसा कहा एक सौ आठ ने
हमने रातें बिताईं सितारों को गिन

अपनी डायट से हमने बचाया बटर
सींचते हम रहे दीप जितने जले

एक ब्रजधाम के, एक थे गोकुली
एक बरसाने वाले पुजारी मिले
उनके वचनामॄतों को पिया घोलकर
जोड़ कर अपनी आशाओं के सिलसिले
ब्राह्मणों को दिये भोज, की परिक्रमा
नित्य श्वलिंग पर जल चढ़ाते रहे
हाथ में एक माला पकड़ राम का
नाम हर सांस में गुनगुनाते रहे

सूर्य वन्दन किया नित्य ही भोर को
करते स्तुतियां रहे, रोज संध्या ढले

कुंभकर्णी मगर नींद सोया रहा
भाग्य का लेख जो था हमारा लिखा
बीते दिन मास सप्ताह पल पल सभी
किन्तु बदलाव हमको न कोई दिखा
कोष संचित गंवा कर, विदित हो गया
ये सभी स्वप्न विक्रय की दूकान हैं
उतना फ़ंसता रहा चंगुलों में वही
जो हुआ जितना ज्यादा परेशान है

और फिर सत्य ये भी पता चल गया
है अँधेरा सदा दीपकों के तले.

Thursday, August 9, 2007

हाय रसोई और हम

हुआ यों कि श्रीमतीजी ने एकदम एलान कर दिया कि कुछ दिनों के लिये वे हमसे छुटकारा पाना चाहती हैं, इसलिये उन्होने अपनी टिकट बुक करा ली और तीसरे दिन ही प्रस्थान कर दिया अपने मायके के लिये. पहले तो हमने सोचा कि चलो अच्छा हुआ. कुछ दिन तक हम सारे चिट्ठे ध्यान देकर भली भांति पढ़ेंगे और समझने की ईमानदार कोशिश भी करेंगे. एक लिस्ट भी बना ली जिसमें सीधे साधे चिट्ठे जैसे उड़नतश्तरी, फ़ुरसतिया और दिल के दर्पण या दिल के दर्म्याँ को कोई जगह नहीं दी. सोचा उन चिट्ठों को पढ़ना भी क्या पढ़ना जो सीधी बात करते हैं.

खैर, पहले दिन ही जैसे यह सोचा कि खाना पीना निपटा कर चिट्ठे पढ़ेंगे, सारा प्रोग्राम धरा का धरा रह गया. चिट्ठे पढ़ पाना तो दूर, कम्प्यूटर तक पहुँचने की नौबत ही नहीं आई. रसोई से बाहर निकल पाना असम्भव हो गया. सारी कोशिशें बस यों सिमट कर रह गईं :-




तुमने कहा चार दिन, लेकिन छह हफ़्ते का लिखा फ़साना
सच कहता हूँ मीत, तुम्हारा महंगा पड़ा मायके जाना

कहां कढ़ाई, कलछी, चम्मच,देग, पतीला कहां कटोरी
नमक मिर्च हल्दी अजवायन, कहां छुपी है हींग निगोड़ी
कांटा छुरी, प्लेटें प्याले, सासपेन इक ढक्कन वाला
कुछ भी हमको मिल न सका है, हर इक चीज छुपा कर छोड़ी

सारी कोशिश ऐसी जैसे खल्लड़ से मूसल टकराना
सच कहता हूँ मीत तुम्हारा महंगा पड़ा मायके जाना

आटा सूजी, मैदा, बेसन नहीं मिले, न दाल चने की
हमने सोचा बिना तुम्हारे यहाँ चैन की खूब छनेगी
मिल न सकी है लौंग, न काली मिर्च, छोंकने को न जीरा
सोड़ा दिखता नहीं कहीं भी, जाने कैसे दाल गलेगी

लगा हुआ हूँ आज सुबह से, अब तक बना नहीं है खाना
सच कहता हूँ मीत, तुम्हारा महंगा पड़ा मायके जाना

मेथी, केसर,काजू,किशमिश, कहीं छुपे पिस्ते बदाम भी
पिछले महीने रखी बना जो, मिली नहीं वो सौंठ आम की
ढूँढ़ छुहारे और मखाने थका , न दिखती कहीं चिरौंजी
जिनके परस बिना रह जाती खीर किसी भी नहीं काम की

सारी कैबिनेट उलटा दीं, मिला न चाय वाला छाना
सच कहता हूँ मीत, तुम्हारा महंगा पड़ा मायके जाना

आज सुबह जब उठ कर आया, काफ़ी, दूध, चाय सब गायब
ये साम्राज्य तुम्हारा, इसको किचन कहूँ या कहूँ अजायब
कैसे आन करूँ चूल्हे को, कैसे माइक्रोवेव चलाऊँ
तुम थीं कल तक ताजदार, मैं बन कर रहा तुम्हारा नायब

कैलेन्डर की तस्वीरों से, सूजी का हलवा दे ताना
सच कहता हूँ मीत, तुम्हारा महंगा पड़ा मायके जाना

आलू, बैंगन, गोभी, लौकी, फ़ली सेम की और ग्वार की
सब हो गये अजनबी, टेबिल पर बोतल है बस अचार की
कड़वा रहा करेला, सीजे नहीं कुन्दरू, मूली गाजर
दाल मूँग की जिसे उबाला, आतुर है घी के बघार की

नानी के संग, आज बताऊँ याद आ रहे मुझको नाना
सच कहता हूँ मीत, तुम्हारा महंगा पड़ा मायके जाना

डोसा, इडली, बड़ा, रसम के साथ याद आती है सांभर
बड़ा-पाव, उत्तपम, खांडवी, पूरन-पोली, वाड़ी -भाकर
बाटी, दाल, चूरमा, गट्टे, छोले और तंदूरी रोटी
मुँह में घुलते हुए याद बन, चटनी संग उज्जैनी पापड़

संभव नहीं एक पल को भी, आँखों से इनकी छवि जाना
सच कहता हूँ मीत, तुम्हारा महंगा पड़ा मायके जाना

पीज़ा हट के पीज़ा में अब स्वाद नहीं कुछ आ पाता है
बर्गर में लगता है मुझको, भूसा सिर्फ़ भरा जाता है
चाट-पापड़ी, और कचौड़ी, स्वादहीन बिन परस तुम्हारे
और समोसा बहुत बुलाया, लेकिन पास नहीं आता है

संदेसा पाकर, उड़ान ले अगली जल्दी वापिस आना
सच कहता हूँ मीत तुम्हारा महंगा पड़ा मायके जाना

रतलामी सब सेव खो गये, मिली न भुजिया बीकानेरी
दालमोठ के पैकेट गायब, सूखे पेठे और गँड़ेरी
आलू के लच्छे या चिवड़ा गुड़धानी न भुने चने हैं
भूल भुलैया बनी रसोई, पेट बजाता है रणभेरी

तुम आओ तो लिखा नाम है जिस मेरा, पाऊं खाना
सच कहता हूँ मीत, तुम्हारा महंगा पड़ा मायके जाना

Friday, August 3, 2007

ये गीत लिख रहे हैं

तुम्हारी नजरों को देख कर हम, हुज़ूर ये गीत लिख रहे हैं
न जाने कैसा चढ़ा है हम पर सुरूर, ये गीत लिख रहे हैं

वे और होंगे जिन्हें ये दावा है वे सुखनवर हैं, वे हैं शायर
हमें तो इस पर नहीं जरा भी गुरूर, ये गीत लिख रहे हैं

कहां है मुमकिन जुबां को खोलें या कोई इज़हार कर सकें हम
ख़ता हमारी है इतनी केवल जरूर, ये गीत लिख रहे हैं

तुम्हारी महफ़िल से अजनबी जो, शनासा थी कल तलक हमारी
उस तिस्नगी के खयाल से भी, हो दूर ये गीत लिख रहे हैं

उठाओ तुम भी जनाब उंगली, जो लिख रहे हो वो गात कब है ?
नहीं गज़ल की है बंदिशों का शऊर, ये गीत लिख रहे हैं

कैसे बोझ उठायेंगे

कैसे होंगे गीत आपके अधरों पर जो आयेंगे
जिन्हें आप सरगम के गहने पहना पहना गायेंगे

मेरे शब्दों की किस्मत में लिखा हुआ ठोकर खाना
आज संभल कर उठे किन्तु ये कल फिर से गिर जायेंगे

छंदों की उजड़ी बस्ती में भावों का ये चरवाहा
अक्षर हैं भटकी भेड़ों से, कैसे फिर जुड़ पायेंगे

भावों की गठरी के ॠण का मूल अभी भी बाकी है
और ब्याज पर ब्याज चढ़ रहा कैसे इसे चुकायेंगे

नीलामी सुधि की सड़कों पर, लेकिन ग्राहक कोई नहीं
मुफ़्त तमाशे के दर्शक तो अनगिनती मिल जायेंगे

Sunday, July 29, 2007

समीर लालजी -जन्मदिन शुभ हो

अभी अभी नाटक देख कर घर वापिस आया तो देखा खिड़की की सिल् पर बैठी एक गौरेय्या गुनगुना रही थी. उसका गाना सुनते सुनते सहसा ही याद आया कि कल २९ जुलाई को एक जन्मदिवस भी मनाना है.सोचा कि कोई फ़िल्मी गाना तलाश कर के भेज दूँ पर बहुत देर तक ढूँढ़ने के बाद भी कोई ऐसा गाना नहीं मिला जिसे भेज कर औपचारिकता निभा दी जाये ( हालांकि जिसका जन्मदिन है उससे औपचारिकता का रिश्ता पूरे ८०० किलोमीटर तक नहीं है )) अब सीधी साधी भाषा में केवल जन्मदिन शुभ हो या सालगिरह मुबारक या Happy Birthday to you कह कर पूरा कर देना अपने बस की बात नहीं है. गाना आता नहीं. कहानी सुना नहीं सकते. लेख हम उनके लिये क्या लिखें जो लेख सोते बिछाते हैं.

खैर जो भाव दिल में हैं वे सामने हैं

आज हर्ष से पूरित क्षण में केवल एक करूँ अभिलाषा
उड़नतश्तरी और नई ऊँचाई छू ले इतनी आशा

शत सहस्त्र जीवन के दिन हों,लिखना बातें हैं बेमानी
मैं कहता हूँ आप लिखें नित जीवन में इक नई कहानी
जब भी कलम उंगलियों में आये या जब कुंजीपट खड़के
लिखें आप जो ऐसा हो वह, पढ़ हर पाठक का दिल धड़के

वह पनघट बन जायें जिससे जाये न कोई भी प्यासा
और नई ऊँचाई लेखन की छू लें बस इतनी आशा

संवेदन घुल कर शब्दों में अर्थ नये दे जिसे लिखो तुम
अंधियारे की गलियों में बस ज्योतिपुंज का रूप्दिखो तुम
नभ के फूल सदा द्वारे पर वन्दनवार बनें खिल जायें
वॄन्द मंजरी के गुच्छे आ लेखन का सौरभ महकायें

उत्तर पाले सदा उठे जो मन में कोई भी जिज्ञासा
उड़नतश्तरी और नई ऊँचाई छू ले ये है आशा.

समीर भाई-- ये कामना आपके लिये

Friday, July 27, 2007

तलाश

घूमता मैं रहा भोर से सांझ तक, शब्द के रिक्त प्याले लिये हाथ में
कोई ऐसा मिला ही नहीं राह में, भाव लेकर चले जो मेरे साथ में
अजनबी राह की भीड़ में ढूँढ़ता कोई खाका मिले जिससे पहचान हो
भूमिका बन सके फिर उपन्यास की, बात होकर शुरू बात ही बात में

Thursday, July 12, 2007

अब लिखने से कतराता हूँ

वैसे तो भाई साहब का आग्रह था कि कुछ लिखूँ और मैने सोचा कि उनका आग्रह मान लूँ. पर इस वक्त की जद्दोजहद के चलते जो लिखने कीकोशिश की तोअसफ़; ही रह गया.

बस यही कह सका कि


यह जो दौर चला है इसमें मोल न कुछ भी है भावों का
इसीलिये मैं लिखते लिखते अनायास ही रुक जाता हूँ

रह रह प्रश्न किया करते हैं शब्द, पॄष्ठ से उठा निगाहें
रोपे थे विरवे तुलसी के, कैसे हुईं कँटीली राहें
उलझी हुई गाँठ सी लगता सर्पीली हर इक पगडंडी
अवरोधों के फ़न फ़ैलाये बढ़ी हुईं झंझा की बाँहें

नहीं समय अब रहा वॄक्ष सा तन कर खड़े हुए रहने का
इसीलिये मैं हरी दूब जैसा, चरणों में झुक जाता हूँ

आक्षेपों के चक्रव्यूह में घिरे हुए हैं सारे चिन्तन
षड़यंत्रों से सांठ गांठ जिनकी, उनका होता अभिनन्दन
सॄजनात्मकता नये हाल में अपना अर्थ गंवाये जाती
दिखते हैं भुजंग ही केवल, जकड़ा हुआ इस कदर चंदन

रोज सुबह आशान्वित होता हूँ, शायद परिवर्तन होगा
और सांझ के होते होते धीरज खोकर चुक जाता हूँ

उठें उंगलियां आज उधर ही, जिधर जरा नजरें दौड़ाईं
अस्तित्वों पर प्रश्न चिन्ह हैं,ब्रह्मा,शिव या कॄष्ण कन्हाई
अपनी ही जड़ पर करने में लगे हुए आघात निरन्तर
और सोचते हैं इनकी ही हो न सकेगी जगत हँसाई

सधे मदारी की चालों से बँधे हुए लगता सब पुतले
जिनमें जुम्बिश कोई नहीं, मैं फ़टकारे चाबुक जाता हूँ

Friday, July 6, 2007

कल कहीं मन कबीरा भी हो कि न हो

लग रही सांझ ये नेह की आखिरी
कल को शायद सवेरा भी हो कि न हो
आज जी भर के आराम कर लेने दो
कल कहीं पर बसेरा भी हो कि न हो

मैने नापी हैं जो राह की दूरियां
उनके मीलों को अब तक गिना ही नहीं
मैने उपलब्धियां मान कर ही उन्हें
है सहेजा, निराशा जो मिलती रहीं

हर घड़ी एक दीपक जलाये रखा
कल को शायद अँधेरा भी हो कि न हो

मोड़ अनगिन मिले, मैं भटकता रहा
किन्तु संकल्प मन के न टूटे मेरे
मैं उठाता रहा हर कदम पर उन्हें
राह में ठोकरें खा के जो गिर पड़े

मैं लुटाता रहा अपना दिल इसलिये
कल को मौसम लुटेरा भी हो कि न हो

आस्था के दिये प्रज्ज्वलित तो किये
रोशनी से कभी जगमगाये नहीं
गीत लिखता रहा रोज ही मैं मगर
वह किसी ने कभी गुनगुनाये नहीं

इसलिये खाके मैं बुन रहा याद के
चित्र सुधि ने चितेरा भी हो कि न हो

जो धरोहर मिली है मुझे कोष में
धीरे धीरे उसे मैं गंवाता रहा
टूटती सांस के तार को छेड़ कर
स्वर अधूरे गले में सजाता रहा

कह रहा हूँ सभी साखिया आज मैं
कल कहीं मन कबीरा भी हो कि न हो

Thursday, June 28, 2007

ओ मेरे प्राणेश-तुम्हारे बिना नहीं है कुछ भी संभव

पिछले कुछ दिनों में कई रचनायें पढ़ीं. दिव्याभ और साध्वी रितु के दॄष्टिकोण और अन्य कई चिट्ठाकारों के अनुभव, शिकायत और नजरिये से प्रेरित होकर कुछ पंक्तियों का संयोजन स्वत: ही हो गया है.

आपकी प्रतिक्रिया अपेक्षित है:-

एक तुम्हारा अनुग्रह पाकर भक्ति भावना जागी मन में
वरना भटक रहे जीवन को कोई दिशा नहीं मिल पाती

इस मन के सूने मरुथल में तुम बरसे बन श्याम घटायें
एक तुम्हारी कॄपादॄष्टि से सरसीं मन की अभिलाषायें
इस याचक को बिन मांगे ही तुमने सब कुछ सौंपा स्वामी
फिर जीवंत हुईं हैं जग में कॄष्ण-सुदामा की गाथायें

एक तुम्हारी वंशी के इंगित से सरगम जागी जग में
वरना बुलबुल हो या कोयल कोई गीत नहीं गा पाती

करुणा सूर्य तुम्हारा जब से चमका मेरी अँगनाई में
हर झंझा का झौंका, आते ढल जाता है पुरबाई में
नागफ़नी के कांटे हो जाते गुलाब की पंखुरियों से
गीत सुनाती है बहार, हर उगते दिन की अँगड़ाई में

एक तुम्हारा दॄष्टि परस ही जीवन को जीवन देता है
केवल माली की कोशिश से कोई कली नहीं खिल पाती

तेरी रजत आभ में घुल कर सब स्वर्णिम होता जाता है
मन पागल मयूर सा नर्तित, पल भी बैठ नहीं पाता है
तू कवि तू स्वर, भाषा,अक्षर,चिति में चिति भी तू ही केवल
तेरे बिन इस अचराचर में अर्थ नहीं कोई पाता है

तेरे वरद हस्त की छाया, सदा शीश पर रहे हमारे
और चेतना इसके आगे कोई प्रार्थना न कर पाती.

Monday, June 25, 2007

एक मुक्तक और

उंगलियों ने मेरी थाम ली तूलिका, चित्र बनने लगे हर दिशा आपके
चूम ली जब कलम उंगलियों ने मेरी नाम लिखने लगी एक बस आपके
पांखुरी का परस जो करें उंगलियां, आपकी मूर्ति ढलती गई शिल्प में
किन्तु गिन न सकीं एक पल, उंगलियां जो जुड़ा है नहीं ध्यान से आपके

Tuesday, June 19, 2007

नारद का तो काम रहा है केवल आग लगाना जी

फ़ोन आया हमरे हितैषी का. बहुत गुस्से मेम थे. हलो कहते ही बरस पड़े
" मियां क्या हो गया है तुम्हें . इतना बवाल मचा हुआ है और तुम हो कि नीरो की तरह रोम को जलता हुआ छोड़ कर चैन की वंशी बजा रहे हो. छोड़ो ये हारमोनियम की धुन और कूद पड़ो स्म्ग्राम में. देखो कितने महारथी आज संजाल पर कुरिक्षेत्र बना रहे हैं और बेचारे शांतिदूतों के उपदेशों की धज्जियां उड़ा रहे हैं "

हम सकपकाये. " आप किसकी बात कर रहे हैं ?"

" लगता है आजकल चिट्ठे पढ़ते नहीं हो तभी ऐसे अनजान बन रहे हो " वे बोले

अब क्या बतायें आपको. ले दे के पढ़ने लिखने के लिये जो घड़ी की तिजोरी से एक-दो घंटे चुरा पाते हैं, हम उसमें सिर्फ़ अपनी पसन्द के लेखन को ढूँढ़ कर पढ़ते हैं. इसलिये हमें पता नहीं."

वे चले गये तो रहा न गया. हमने भी सोचा कि दुनिया पानी में बहती है तो हमें भी तो चलती हवाके साथ बहनाचाहिये. तो साहब, हम सिर्फ़ अपनी बात कर रहे हैं और हवा के साथ ऐसे बह रहे हैं :-----


हाथ हमारे भी इस बहती गंगा में धुलवानाजी
ढपली एक हमारी उस पर तुम भी थाप लगाना जी

हम जब मुर्गी आयें चुराने, दड़बा खुला हुआ रखना
और दूसरा कोई आये, चोर चोर चिल्लाना जी

हाय हिन्दू हाय मुस्लिम, इससे आगे बढ़े नहीं
माना है ये खोटा सिक्का, हमको यही चलाना जी

फ़ुल्ले फ़ूटे हुए, हवा के साथ चढ़ चुके हैं नभ पर
ठूड्डी शेष पोटली में है, उसे हमें भुनवाना जी

मस्जिद में फ़ूटे बम चाहे मंदिर का हो कलश गिरा
हमको सब कुछ गुजराती के मत्थे ही मढ़वाना जी

बाकी के सब शब्द आजकल हमको नजर नहीं आते
इसीलिये तो नारद नारद की आवाज़ लगाना जी

कौन यहाँ किस मतलब से है, इससे कोई नहीं मतलब
सिर्फ़ हमारा झंडा फ़हरे, इसकी आस लगाना जी

कुछ भी समझें या न समझें, आदत लेकिन गई नहीं
काम हमारा रहा फ़टे में आकर टांग अड़ाना जी

वैसे तो है निहित स्वार्थ अपना, पर क्यों हम बतलायें
इस्तीफ़े की गीदड़ भभकी, केवल हमें दिखाना जी

Monday, June 18, 2007

पितॄ दिवस की शुभकामनाये<

ज़िन्दगी के घने इस बियावान में
जिसका आशीष हमको दिशायें बना
जिसके अनुराग के सूर्य ने पी लिया
राह के मोड़ पर छाया कोहरा घना
सॄष्टिकारक रहे दाहिने जो सदा
आज स्वीकार कर लें हमारा नमन
आपका स्नेह मिलता रहे हर निमिष
आज के दिन यही हम करें कामना

Thursday, June 14, 2007

बिना शीर्षक

जाने कैसी हवा चली है, क्या हो गया ज़माने को
जिसको देखो, वही खड़ा, ले आईना दिखलाने को

इस हमाम में नहीं देखता कोई अपनी उरियानी
जिम्मेदार बने हैं औरों पर उंगलियां उठाने को

इस नगरी में दशरथनंदन रहते सदा निशाने पर
कौन जाये उनकी गलियों में अहमक को समझाने को

बिछे हुए हैं अब शोले ही शजरों की परछाईं में
आप लाये कच्चे सूतों की दरियां यहाँ बिछाने को

नाम नये दे देकर फिर फिर से उसको दोहराते हो
कब तक और सुनाओगे इक घिसे पिटे अफ़साने को

बात अदब की तो करते हैं, पर करते बेअदबी से
नाम आप जो देना चाहें दें ऐसे नादानों को

है लिबास तो, लेकिन इनकी फ़ितरत हुई न इंसानी
मौका मिलते ही बेचा करते अपने भगवानों को

Friday, June 8, 2007

अनाड़ी शायर

क्या रदीफ़-ए-गज़ल, काफ़िया, क्या बहर, हम न जाने कभी, हम अनाड़ी रहे
सल्तनत शायरी की बहुत है बड़ी और हम एक अदना भिखारी रहे
फिर भी जब बात बारीकियों की चले , ज़िक्र हो जब भी इज़हार-ए-अंदाज़ का
तो यकीं है हमें ओ मेरे हमसुखन ! तेरे लब पे बयानी हमारी रहे

Tuesday, June 5, 2007

मैं भी इक दिन गीत लिखूंगा

आजकल चिट्ठे पर नये नये रूप में तथाकथित गज़ल, गीत, कविता और अकविता की भरमार हो रही है, और हम हैं कि कलम हाथ में लिये टुकुर टुकुर खाली स्क्रीन को देखे जा रहे हैं. कई बार आवाज़ लगाइ अपने कलाकार को, कई सन्देशे भेजे मगर सभी नाकाम हुए. हार कर हमने अपने कलाकार को धर दबोचा. मियां दुनिया एक दिन में पांच पांच छह छह पोस्ट पर पोस्ट किये जा रही है गज़ल और कविता के नाम पर ( हालांकि अधिकांश में ऐसा कुछ होता नहीं है )और तुम हो कि ले दे के हफ़्ते दस दिन में कुछ डेढ़ दो शब्द लिखते हो. उठो और अपने नाम को सार्थक करो.

हमारी लताड़ पर हमारे कलाकार ने आश्वासन दिया- घबराओ मत. जल्दी ही मनोकामना पूर्ण होगी. ये लो वादा ले जाओ.

उनका आश्वासन जो मिला आपसे बाँट रहे हैं

इक दिन मैं भी लिखूँगा कविता
इक दिन मैं भी गीत लिखूँगा

अभी आजकल बहुत व्यस्त हूँ
समय नहीं बिलकुल मिल पाता
एक निमिष भी हाथ न लगता
जिसमें कुछ नग्मे गा पाता
पाँच् जौब मै व्यस्त आज कल
ऐसी कुछ मेरी दुविधा है
सिवा मेरे हर एक किसी को
कविता लिखने की सुविधा है.

छोड नौकरी जब आउँगा
तब स्वर्णिम संगीत लिखूँगा
इक दिन मैं भी गीत लिखूँगा

पहला जौब नौकरी मेरी
जो दस घन्टे ले जाती है
और दूसरा मेरी बीवी
जो बाकी दिन हथियाती है
तीजा चौथा सोशल और
वौलन्ट्री काम मेरा होता है
और पाँचवाँ बच्चों की फ़रमाईश
जिसमें मन खोता है

हार रहा हूँ रोज समय से
इक दिन अपनी जीत लिखूँगा
मैं भी इक दिन गीत लिखूँगा

नाटक मुझको लिखने होते
लिखने पडते कई सिलेबस
और किचन का काम हमेशा
मुझको कर जाता है बेवस
रोज फोन पर मुझे दोस्तों
से भी बातें करनी होतीं
दिन के साथ साथ ऐसे ही
मेरी सारी रातें खोतीं


दादी नानी ने सिखलाई
जो मुझको वो रीत लिखूँगा
इक दिन मैं भी गीत लिखूँ
गा

Friday, June 1, 2007

भाईजी- लोहा लोहे को काटता है

भाई साहब रोना रो रहे थे कि जैसे तैसे जो वज़न घटाया था, दो दिन में ही वापिस आ गया बैरंग खत की तरह. आता भी क्यों नहीं जब परहेज से दूर भाग गये. हमने लाख समझाया भाइ साहब, रोजाना की खुराक को मत बदलिये. हमने सारे डाक्टरों की सलाह को नींबू की तरह निचोड़ कर, अदरक का छोंक लगा कर तैय्यार किया था और उन्हें भेजा था पर भाई साहब ने जार्ज बुश की अकल की तरह उसे टाप सीक्रेट करार देकर सेफ़ डिपाजिट में बन्द कर दिया. अरे साहब अगर आपने इस पर अमल किया होता तो क्या मजाल एक ओंस वज़न भी आपके पास वापिस आ फ़टकता. अब क्योंकि आप सेफ़ मे रख कर शायद भूल गये हैं इसलिये दोबारा संतुलित वज़न का रहस्य आपके सामने फिर प्रकाशित कर रहा हूँ. कल से ही इस पर अमल करे और देखें कि वज़न की समस्या कैसे छूमन्तर होती है नाश्ता:- १ हनी ग्लेज़्ड डोनट १. मिक्स्ड बैरी मफ़िन ४ स्ट्राबेरी पैनकेक और मेपल सीरप १ लार्ज आर्डर हैश ब्राऊन १ टैक्सान आमलट
१ बड़ा गिलास आरेंज जूस १ फ़ुल मिल्क डबल शाट लाते लंच: ( चाहें तो एक दो आयटम कम कर सकते हैं )१. चीज किसादिया
२. फ़्राईड पनीर इन व्हाईट मैरीनारा सास
३.स्टफ़्फ़्ड बटर नान
४. कैश्यू मटर
५. मैंगो लस्सी
६. शाही मलाई कोफ़्ता
७. गुलाब जामुन या रस मलाई

अपरान्ह का नाश्ता

१. दो समोसे
२. १५० ग्राम गाजर का हलवा
३. दही बड़े और गुझिया
४. एक बड़ा ग्लास दही की लस्सी, या मिल्क शेक
५. प्योर मिल्क टी या काफ़ी- इच्छानुसार
६. संभव हो तो घंटेवाले हलवाई का सोहन हलवा भी

डिनर.

१. पेटाइजर के लिये पकौड़ा या आलू टिक्की और एक प्लेट चाट
२. बटर मलाई कोफ़्ता
३. कढ़ाई पनीर
४. फ़्रायड पोटेटो इन हनी एन्ड जिन्जर सास
५. चीज परांठा
६ बटर्ड अप्रीकाट एंड प्लम इन स्वीट क्रीम


अब भाई साहब आप ऐसा कीजिये कि फौरन से इस पर अमल करना शुरू कर दीजिये. साथ ही साथ रोजाना भाई अभिनव शुक्ला की इस कथा का पाठ करते रहिये.










Monday, May 21, 2007

हिन्दी के विशिष्ट प्रेमी

अभी घर पहुंच कर जूते उतार भी नहीं पाये थे कि फोन की घंटी बजनी शुरू हो गई. एक पांव का जूता उतरा और दूसरे का लटका ही रहा जब हमने दौड़ते दौड़ते जाकर फोने उठाया :-

" हलो ! गीतकार जी बोल रहे हैं न "

" जी हां. हैं तो हम ही " हमने जबाब दिया और सोच में पड़ गये कि यह अजनबी आवाज़ किसकी हो सकती है.

" नमस्कार गीतकार जी. मुझे आपका पता एक चिट्ठाकार भाई से मिला..... " उधर से बात शुरू हुई

" जी " हमने कहा. " बतलायें कि हम आपकी क्या सेवा कर सकते हैं "

" हैं हैं हैं " उधर से आवाज़ आई " दर असल आमरीका मेंविश्व हिन्दी सम्मेलन होने वाला है न, उसी के विषय में आपसे बात करनी थी "

" जी कहिये क्या बात है " ? हम अधीर हो रहे थे. चाय की चाहत परेशान कर रही थी.

चाह त चाय की है नैरन्तर रही, चाह इस पर कोई जोर होता नहीं
भोर संध्या दुपहरी कहीं कोई भी चाय की चाह के बीज बोता नहीं
ये है संजीवनी , ये है निद्रा हरक और तो और सावन की काली घटा
चाय की एक चुस्की लिये बिन कभी आके दामन किसी का भिगोता नहीं

चाय की अधीरता में यह ध्यान ही नहीं रहा कि हमारे विचार होठों से फूट पड़े है. मालूम तब हुआ जब उधर से आवाज़ आई

क्या कह रहे हैं आप, घटा का चाय से क्या ताल्लुक ?

छोड़िये इसे. हम बात टालना चाहते थे.

नहीं नहीं! आपको ये तो बताना ही पड़ेगा.

बात को छोटी करने के उद्देश्य से हमने स्पष्ट किया कि मानसून की हवायें जब हिमालय की शॄंखला से टकरा कर वापिस लौटती हैं तभी घटा बन कर उमड़ती हैं और हिमालय की तराई में ही तो चाय के बागान हैं. तभी तो उन पर होकर जब वापिस आती हैं तभी तो बरस पाती हैं.

खैर अब बताइये . आपने फोन्रे कैसे किया ? हमने पूछा

वे बोले-- साहब जुलाई में न्यूयार्क में हिन्दी सम्मेलन हो रहा है न, आप उसकी समिति में हैं.

जी हां. तो फिर ? हमने पूछा

वे बोले- ऐसा है गीतकारजी. हम पिच्हले तीस वर्षों से हिन्दी की सेवा कर रहे हैं और लोग हमें जानते नहीं. तो सोचा कि आपको इस विषय में बता दें.

हम बोले, ठीक है आप हिन्दी की क्या सेवा कर रहे हैं बताईये ? हमने कभी उनका नाम भी नहीं सुना था पने लगभग पच्छीस वर्षों के अमेरिका प्रवास में हिन्दी के किसी भी सन्दर्भ में.

जी वे बोले, हम हिन्दी के विशेष सेवक है> यूसी. हम पिछले तीस सालों से महीने में एक दिन सिर्फ़ हिन्दी में ही बात करते हैं
अच्छा. हमने उत्सुकता दिखाई. तो कौन कौन शामिल है आपके इस अनुष्ठान में ?

जी हमारे घर के लगभग सभी सदस्य हिन्दी में ही बात करते हैं

अच्छा. किय्तने लोग हैं आपके घर में.

जी मेरी पत्नी और मेरी पत्नी की माँ. दर असल मेरी सास को इंग्लिश नहीं आती.

हमारे सब्र का बाँध अब टूट ही गया. हमने बहाना बनाकर उनसे निजात ली कि हमारा भारत से टेलीफोन आ रहा है इसी विषय में और हम उनसे बाद में बात करेंगें

खैर चाय पीने के बाद जो कलम मचली तो:-

योजना गांव बसने की जैसे बनी
आये, डेरे भिखारी लगाने लगे

कल तलक ऊँट से तन अकेले रहे
कोई समझा न अपने सरीखा कभी
एक भदरंग से रंग में डूब कर
अपनी पहचान करते रहे थे बड़ी
आज जब आईना इनको दिखने लगा
देखते देखते सकपकाने लगे
ज्ञान के , अपने चेहरे, मुखौटे लगा
संत से बन के आसन जमाने लगे

बहती गंगा में हाथों को ये धो सकें
इसलिये ही तटॊ पे ये आने लगे

नाम के ये भिखारी, हैं धन के नहीं
चाहते नाम की पूँछ लम्बी लगे
शोहरतों का पुलन्दा बँधा इक बड़ा
वक्ष पर इनके तमगे सरीखा लगे
इसलिये जैसे देखा लकीरें खिंची
नीले कागज़ पे, तस्वीर बनने लगी
भावना इनके भाषा से अनुराग की
तोड़ कर बाँध सहसा उफ़नने लगी

सर पे इनके रखा जाये कोई मुकुट
धक्के दे इसलिये आगे आने लगे

जानते हैं कि होते सभा भंग ये
फिर से कोटर में अपने दुबक जायेंगे
ये लगाये हैं हिन्दी की बैसाखियां
अपने पांवों पे दो पग न चल पायेंगे
सावनी दादुरों के ये पर्याय हैं
इनकी अपनी नहीं अस्मिता शेष है
कल थे जयचंद ये, आज भी हैं वही
फ़र्क इतना कि बदला हुआ भेष है

एक श्रोता मिला तो ये विरुदावली
चारणों सी स्वयं की सुनाने लगे

Tuesday, May 15, 2007

ग़ज़ल बन गई

आपकी दॄष्टि का जो परस मिल गया, फूल की एक पांखुर कमल बन गई
आपका हाथ छूकर मेरे हाथ में भाग्य की एक रेखा अटल बन गई
शब्द की यह लड़ी जो रखी सामने, हो विदित आपको यह कलासाधिके
आपके पग बँधी थी तो पायल रही, मेरे होठों पे आई गज़ल बन गई

मुक्तक महोत्सव-३८ से ४२ तक

मित्रों,
इस सप्ताह के ५ मुक्तक आपकी सेवा में पेश हैं. आशा है टिप्पणियों के माध्यम से आप इस महोत्सव को सफल बनायेंगे.

मुक्तक महोत्सव



आप की प्रीत ने होके चंदन मुझे इस तरह से छुआ मैं महकने लगा
एक सँवरे हुए स्वप्न का गुलमोहर, फिर ओपलाशों सरीखा दहकने लगा
गंध में डूब मधुमास की इक छुअन मेरे पहलू में आ गुनगुनाने लगी
करके बासंती अंबर के विस्तार को मन पखेरू मेरा अब चहकने लगा



तुम्हारा नाम क्यों कर लूँ, मेरी पहचान हो तुम तो
कलम मेरी तुम्ही तो हो, मेरी कविता तुम्ही से है
लिखा जो आज तक मैने , सभी तो जानते हैं ये
मेरे शब्दों में जो भी है, वो संरचना तुम्ही से है



मेरी हर अर्चना, आराधना विश्वास तुम ही हो
घनाच्छादित, घिरा जो प्यास पर, आकाश तुम ही हो
मेरी हर चेतना हर कल्पना हर शब्द तुमसे है
मेरे गीतों के प्राणों में बसी हर सांस तुम ही हो



आपके पन्थ की प्रीत पायें कभी, आस लेकर कदम लड़खड़ाते रहे
आपके रूप का गीत बन जायेंगे, सोचकर शब्द होठों पे आते रहे
आपके कुन्तलों में सजेंगे कभी, एक गजरे की महकों में डूबे हुए
फूल आशाओं के इसलिये रात दिन अपने आँगन में कलियाँ खिलाते रहे



मैं खड़ा हूँ युगों से प्रतीक्षा लिये, एक दिन आप इस ओर आ जायेंगे
मेरे भुजपाश की वादियों के सपन एक दिन मूर्तियों में बदल जायेंगे
कामनाओं के गलहार को चूमकर पैंजनी तोड़िया और कँगना सभी
आपकी प्रीत का पाके सान्निध्य पल, अपने अस्तित्व का अर्थ पा जायेंगे



* ** * * ** *


Sunday, May 13, 2007

मातृ दिवस विशेष: मुक्तक

कोष के शब्द सारे विफ़ल हो गये भावनाओं को अभिव्यक्तियाँ दे सकें
सांस तुम से मिली, शब्द हर कंठ का, बस तुम्हारी कॄपा से मिला है हमें
ज़िन्दगी की प्रणेता, दिशादायिनी, कल्पना, साधना, अर्चना सब तुम्हीं
कर सकेंगे तुम्हारी स्तुति हम कभी, इतनी क्षमता न अब तक मिली है हमें

Friday, May 11, 2007

एक मुक्तक और एक गज़ल

दिन

किरणों की ले कलम धूप की स्याही से करता हस्ताक्षर
मिटा रहा रजनी के पल को उषा रंग की हाथ ले रबर
पलकों की कोरों के आंसू को अपना कर सके आईना
इस उधेड़बुन में रहती है रोज सुबह से सांझ ये दुपहर.

मांगे है

जो भी मिलता, हाथ बढ़ाकर लगता है कुछ मांगे है
इस बस्ती में मांग, दयानतदारी की हद लांघे है

उठापटक की राजनीति सी है जीवन की राह गुजर
दिन को रात, रात दिन को अब, नित सूली पर टांगे है

कौन चला है कितना पथ पर यह तो कोई सोचे ना
है उधेड़-बुन कौन यहाँ पर किससे कितना आगे है

कोयले की खदान सी काली रात न पत्ता भी हिलता
एक विरहिणी आस और बस इक मेरा मन जागे है

बिछी हुई है शाह राह सी लंबी सूनी तन्हा सांझ
लम्हा लम्हा यहाँ याद की बन्दूकों को दागे है

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Monday, May 7, 2007

शुभ आशीष तुम्हें देता हूँ

हमारे चिट्ठाकार समूह के वरिष्ठ श्री अनूप शुक्लाजी उर्फ़ फ़ुरसतियाजी की भतीजी स्वाति का शुभ विवाह निष्काम के साथ हो रहा है.

इस अवसर पर ~नव दम्पत्ति को सादर शुभ आशीष

सदा रहे मंगलमय जीवन
शुभ आशीष तुम्हें देता हूँ

बिछें पंथ में सुरभित कलियाँ
रसमय दिन हों रसमय रतियाँ
रसभीनी हो सांझ सुगन्धी
गगन बिखेरे रस मकरन्दी
जिसमें सदा बहारें झूमे
ऐसा इक उपवन देता हूँ

सदा रहे मंगलमय जीवन
शुभ आशीष तुम्हे देता हूँ

जो पी लें सागर से गम को
धरती पर बिखरे हर तम को
बँधे हुए निष्काम राग में
छेड़ें प्रीत भरी सरगम को
जो उच्चार करें गीता सा
ऐसे अधर तुम्हें देता हूँ

सदा रहे मंगलमय जीवन
शुभ आशीष तुम्हें देता हूँ

जो सीपी की आशा जोड़े
लहरों को तट पर ला छोड़े
जो मयूर की आस जगाये
सुधा तॄषाओं में भर जाये
जिसमें घिरें स्वाति घन हर पल
ऐसा गगन तुम्हें देता हूँ

सदा रहे मंगलमय जीवन
शुभ आशीष तुम्हें देता हूँ

सुरभि पंथ में रँगे अल्पना
मूरत हो हर एक कल्पना
मौसम देता रहे बधाई
पुष्पित रहे सदा अँगनाई
फलीभूत हो निमिष निमिष पर
ऐसा कथन तुम्हें देता हूँ

सदा रहे मंगलमय जीवन
शुभ आशीष तुम्हें देता हूँ

Tuesday, May 1, 2007

कली को कैसे उमर मिले

कई दिनों से इधर उधर की बातें सुनाई दे रही थीं. वैसे हमने ऊटपटाँग बातों को पढ़ना तो छोड़ ही दिया है परन्तु फिर भी कभी कभी हवा के साथ उड़ते हुए छींटे इधर आ जाते हैं. अब ऐसे ही किसी एक छींटे ने सोई हुई पलकों पर दस्तक दी तो हुआ यह कि शब्द होठों से स्वत: ही निकल पड़े

स्वप्न तू अपने नित्य सम्भाल
न बदलेगा लगता ये हाल
चमन ही हुआ लुटेरा आज
कली को कैसे उमर मिले

भीड़ भीड़ बस भीड़ हर तरफ़ चेहरा कोई नहीं है
हर पग है गतिमान निरन्तर, ठहरा कोई नहीं है
सिसके मानव की मानवता, खड़ी बगल में पथ के
सुनता नहीं कोई भी सिसकी,बहरा कोई नहीं है

विरहिणी छोड़ आज ये गांव
ढूँढ़ मत अंगारों में छांव
रखे यदि इधर किसी ने पांव
पांव रखते ही पांव जले

सरगम की चौखट पर छेड़ो नहीं रुदन की तानें
महली राजदुलार, तपन कब मरुथल की पहचाने
जिनके द्वारे पर बहार आकर के चंवर डुलाती
वे सुमनी सुकुमार कहो कब व्यथा बबूली जाने

यहां करुणा तालों में बन्द
रोशनी को जकड़े प्रतिबन्ध
करो तुम स्वयं आज अनुबन्ध
लगोगे इनके नहीं गले

कोई सभासद नहीं आज इस राजसभा में बाकी
हर जन सिंहासन की खातिर करता ताकाझांकी
चन्दा का जो मुकुट लगाये बैठे हुए यहाँ पर
लूटी गई उन्ही के द्वारा ही अस्मिता विभा की

आवरण बना ईश का नाम
कटी है नित्य भोर व शाम
कहें निज गॄह को तीरथ धाम
झूठ में सने हुए पुतले

चमन ही हुए लुटेरे आज, कली को कैसे उमर मिले

मुक्तक महोत्सव-३३ से ३७ तक

मित्रों,
इस सप्ताह के ५ मुक्तक आपकी सेवा में पेश हैं. आशा है टिप्पणियों के माध्यम से आप इस महोत्सव को सफल बनायेंगे.

मुक्तक महोत्सव



था गणित और इतिहास-भूगोल सब, औ' पुरातत्व विज्ञान भी पास था
भौतिकी भी रसायन भी और जीव के शास्त्र का मुझको संपूर्ण अहसास था
अंक, तकनीक के आँकड़ों में उलझ ध्यान जब जब किया केन्द्रित ओ प्रिये
थीं इबारत किताबों में जितनी लिखीं, नाम बन कर मिली वे मुझे आपका



तूलिका आई हाथों में जब भी मेरे, कैनवस पर बना चित्र बस आपका
लेखनी जब भी कागज़ पे इक पग चली, नाम लिखती गई एक बस आपका
चूड़ियों की खनक, पायलों की थिरक और पनघट से गागर है बतियाई जब
तान पर जल तरंगों सा बजता रहा मीत जो नाम है एक बस आपका



कनखियों से निहारा मुझे आपने
राह के मोड़ से एक पल के लिये
मनकामेश्वर के आँगन में जलने लगे
कामना के कई जगमगाते दिये
स्वप्न की क्यारियों में बहारें उगीं
गंध सौगंध की गुनगुनाने लगी
आस की प्यास बढ़ने लगी है मेरी
आपके साथ के जलकलश के लिये



आप पहलू में थे फिर भी जाने मुझे क्यूँ लगा आप हैं पास मेरे नहीं
थे उजाले ही बिखरे हुए हर तरफ़, और दिखते नहीं थे अन्धेरे कहीं
फूल थे बाग में नभ में काली घटा, और थी बाँसुरी गुनगुनाती हुई
फिर भी संशय के अंदेशे पलते रहे,बन न जायें निशा, ये सवेरे कहीं.



आप नजदीक मेरे हुए इस तरह, मेरा अस्तित्व भी आप में खो गया
स्वप्न निकला मेरी आँख की कोर से और जा आपके नैन में सो गया
मेरा चेतन अचेतन हुआ आपका, साँस का धड़कनों का समन्वय हुआ
मेरा अधिकार मुझ पर न कुछ भी रहा,जो भी था आज वह आपका हो गया



* ** * * ** *


Friday, April 27, 2007

जो तुमने कहा है वही कर रहा हूँ


यों तो कोई इरादा नहीं था आज लिखने का. एक सप्ताह की छुट्टी से लौटने के बाद( छुट्टी में यात्रा कैसे हुई यह चित्र से जाहिर है ) आफ़िस में आगत की टोकरी लबाबब भरी हुई थी. साढ़े तीन दर्जन आफ़िस के और पूरे १८७ ईकविता के सन्देशों से निपटने का काम आधा भी नहीं हुआ था. कुल जमा इकत्तीस फोने मेलों का जबाब और फिर पारस्परिक प्रशंसा समूह ( Mutual Admiration Society ) के सभी सदस्यों के चिट्ठे पढ़ना और टिप्पणी करना.


बाबा रे बाबा. दांतो तले पसीना आ गया.


सोच रहा था कि बच कर जैसे तैसे वीक एंड तक निपटा लेंगे और लिखने विखने का काम पंकज और अनूपजी पर छोड़ देंगें. बाकी बातों से सागर भाई और जीतू के साथ रविजी निपट लेंगें. पर कहां साहब. कोई हमारा चैन कैसे देख सकता है. धड़धड़ाता हुआ सन्देश आया. हम तो जा रहे हैं शादी में अपना वज़न बढ़ाने अब आप मोर्चा संभालो और करो सामना तीन दिनों तक चिट्ठों का ( नवोदित कवियों के चिट्ठे भी पढ़ना जरूरी है )


और तो और साहब, चलते चलते एक मुक्तक भी टिका गये.


अब तो लगता है, सूरज भी खफा होता है

जब भी होता है, अपनों से दगा होता है.

सोचता हूँ कि घिरती हैं क्यूँ घटायें काली

क्या उस पार भी, रिवाजे-परदा होता है.


अब मैं सोच रहा हूँ कि भाई साहब ने भी सोचना शुरू कर दिया. भाई अगर आप सोचने लग गये तो बाकी के लोग जो गलियों में, कस्बों में सोचने की दूकान लेकर बैठे हैं, उनका क्या होगा ?


खैर छोड़िये, अब जब फ़ँस ही गये हैं तो हम भी सस्ते में छुटकारा ले रहे हैं बस एक मुक्तक के साथ:


आज तुम्हारी याद अचानक नीरजनयने ऐसे आइ
रामचरित मानस की जैसे मंदिर में गूँजे चौपाई
यज्ञभूमि में बहें ॠचायें मंत्रों की ध्वनियों में घुल कर
प्राची अपने मुख पर ओढ़े ऊषा की जैसे अरुणाई
बस बाकी बाद में






Tuesday, April 17, 2007

मुक्तक महोत्सव-२८ से ३२ तक

मित्रों,
इस सप्ताह के ५ मुक्तक आपकी सेवा में पेश हैं. आशा है टिप्पणियों के माध्यम से आप इस महोत्सव को सफल बनायेंगे.

मुक्तक महोत्सव



चांद बैठा रहा खिड़कियों के परे, नीम की शाख पर अपनी कोहनी टिका
नैन के दर्पणों पे था परदा पड़ा, बिम्ब कोई नहीं देख अपना सका
एक अलसाई अंगड़ाई सोती रही, ओढ़ कर लहरिया मेघ की सावनी
देख पाया नहीं स्वप्न, सपना कोई, नींद के द्वार दस्तक लगाता थका



छंद रहता है जैसे मेरे गीत में, तुम खयालों में मेरे कलासाधिके
राग बन कर हॄदय-बाँसुरी में बसीं, मन-कन्हाई के संग में बनी राधिके
दामिनी साथ जैसे है घनश्याम के, सीप सागर की गहराईयों में बसा
साँस की संगिनी, धड़कनों की ध्वने, संग तुम हो मेरे अंत के आदि के



गीत मेरे अधर पर मचलते रहे, कुछ विरह के रहे, कुछ थे श्रंगार के
कुछ में थीं इश्क की दास्तानें छुपीं,और कुछ थे अलौकिक किसी प्यार के
कुछ में थी कल्पना, कुछ में थी भावना और कुछ में थी शब्दों की दीवानगी
किन्तु ऐसा न संवरा अभी तक कोई, रंग जिसमें हों रिश्तों के व्यवहार के.



आपने अपना घूँघट उठाया जरा, चाँदनी अपनी नजरें चुराने लगी
गुनगुनाने लगी मेरी अंगनाईयां भित्तिचित्रों में भी जान आने लगी
गंध में फिर नहाने लगे गुलमोहर रूप की धूप ऐसे बिखरने लगी
आईने में चमकते हुए बिम्ब को देखकर दोपहर भी लजाने लगी



सावनी मेघ की पालकी पर चढ़ी एक बिजली गगन में जो लहराई है
रोशनी की किरन आपके कान की बालियों से छिटक कर चली आई है
कोयलों की कुहुक, टेर इक मोर की, या पपीहे की आवाज़ जो है लगी
आपके पांव की पैंजनी आज फिर वादियों में खनकती चली आई है.



* ** * * ** *


Friday, April 13, 2007

ये हमारे बस की बात नहीं है

एक सप्ताह हो गया चिन्तन और मनन करते हुए. पहले समीर लाल जी का उपदेश सुना और फिर उसके बाद फुरसतिया जी का विश्लेषण कवि और कविता के बारे में.

रोज सुबह आईने के सामने जाते तो उधर से कोई मुँह चिढ़ाता नजर आता कि मियाँ बड़े बनते रहे हो गीतकार की दुम. अब देखो न इतनी सारी खूबियाँ जो गिनवाई गईं हैं, है क्या उनमे से कोई एक भी है तुम्हारे अन्दर ? कभी जागे हो रात भर ? कभी नाउम्मीदी के दामन से आँखें पोंछी हैं ? और तो और मियाँ खाँ तुमसे ये दो अदद आँखें भी नहीं लड़ाईं गईं और चल दिये झंडा उठाकर कि हम गीतकार हैं.
अरे कभी बेजार होकर फिल्मी गाने गाते कि " तेरी दुनिया में दिल लगता नहीं " हमें पता है कि इश्किया गाने कवि लोग नहीं गाते क्योंकि

वियोगी होगा पहला कवि
आह से उपजा होगा गान

अब तुमने न आह की न आँसू बहाये, न रातों की नींदें हराम की, फिर कैसे कह रहे हो कि तुम कवि हो ?

हमने हर बार समझाने की कोशिश की , भाई हम अपने आपको कवि कहाँ कहते हैं. अगर कवि होते तो हम भी अतुकांत कवितायें फ़ुरसतियाजी के बताये स्टाईल में करते. प्रयोगवाद के नाम पर कठिन कठिन शब्दों की पुड़िया बना कर उन्हें कुल्लड़ में खँगालते और फिर करीने से लगा कर कहते कि आओ भाई,
हमारा प्रयोग पढ़ो और सुनो और फिर अपना सर धुनो कि हमने क्या लिखा है. यार हमें तो खादी भंडार का रास्ता भी नहीं मालूम, जहाँ से एक अदद कवि वाली वेशभूषा खरीद लाते.

लेकिन साहब , उधर वाला आदमी हमारी सुनने को तैयार नहीं हुआ. कहने लगा कि जब तक एक प्रयोगवादी अतुकांत कविता लिख कर नहीं लाते, तुमसे यह नाम ( गीतकार ) छीन लिया जायेगा. यह भयंकर धमकी सुन कर हमारे होश उड़ना स्वाभाविक था क्योंकि अगर नाम खो गया तो बस :
याद में गीत बजने लगे

नाम गुम जायेगा, चेहरा ये बदल जायेगा
तेरी आवाज़ ही तेरी पहचान है, गये कि रहे

अब हमें नाम तो गुमवाना नहीं इसलिये फौरन एक प्रयोगधर्मी रचना लेकर हाजिर हुए:
संतरा
खाया छमिया ने
फ़ेंका उसका छिलका
अटक गया बबूल में
भिनसारे का चाँद
नदी की नाव
लुटेरों का घर
हाय रे हाय
धनिये की पुड़िया
और तिरछी नजर


अब इतना कह कर हमने आईने की तरफ़ देखा तो पाया कि छह सात लोग और आकर जमा हो गये हैं और तालियां बजा रहे हैं. उधर से वाह वाह की आवाज़ें आ रही थीं. अजी क्या खूब लिखा है. कलम तोड़ के रख दी. अरे साब भावों को अभिव्यक्ति देना तो कोई आपसे सीखे.

आँखें मिचमिव्हा कर देखा हमने कहीं कोई सपना तो नहीं देख रहे हम. नहीं साहब. उधर से बार बार वाह वाह की आवाज़ें आ रहीं थीं. जैसे ही थमी, उधर वाले एक बिम्ब ने कहा अब आप हमारी रचना सुनिये और जैसे हमने आप को दाद दी है वैसे ही आप दें. हम कुछ बोलें इससे पहले ही वे शुरू हो गये

हाथ में
क्या है ?
क्या नहीं है
क्या होना था
चान्द ?
फ़ावड़ा ?
या भावनाओं का तसला ?
उफ़
यह कुंठा
यह संत्रास
रे मन
खांस खांस खांस !!!!


भाई साहब. हमने जैसे ही सुना, अपने हथियार डाल दिये. यह अतुकांत और प्रयोगवाद हमारे बस की बात नहीं है. हमने वापिस अपनी औकात पर आ गये हैं और उन सभी बिम्बों से विदा लेते लेते यह पंक्तियाँ उन्हें समर्पित किये जारहे हैं:-


मान्यवर आप कविता न अपनी पढ़ें
वरना श्रोता हर इक बोर हो जायेगा
आप ज़िद पर अगर अपनी अड़ ही गये
दर्द सर का, सुनें , और बढ़ जायेगा

आपने जिसको कह कर सुनाया गज़ल
वो हमें आपकी लंतरानी लगी
और जिसको कहा आपने नज़्म है
वो किसी सरफ़िरे की कहानी लगे
छोड़िये अपना खिलवाड़, ओ मेहरबां
शब्द भी शर्म से वरना मर जायेगा

टांग तोड़ा किये आप चौपाई की
और दोहों को अतुकान्त करते रहे
शब्दकोशों की लेकर प्रविष्टि जटिल
आप अपने बयानों में भरते रहे
मान लें कविता बस की नहीं आपके
आपके बाप का क्या चला जायेगा

चार तुक जो मिला लीं कभी आपने
आप समझे कि कविता पकड़ आ गई
मान्यवर एक आवारा बदली है वो
आप समझे घटा सावनी छा गई
और ज्यादा सुनेगा अगर आपकी
देखिये माईक भी मौन हो जायेगा

Friday, April 6, 2007

जी हाँ मान गये हम भी

शाम को देर से घर आये. अभी चाय का ख्याल भी नहीं आया था कि जगमगाती हुई रोशनी के साथ घरघराहट की आवाज़ बाहर लान से आने लगी. हम कुछ सोचें इसके पहले ही घंटी बजी. दरवाजा खोला, सामने उड़नतश्तरी लान में उतर चुकी थी और स्वामीजी हमारे दरवाजेपर खड़े थे. देखते ही बोले-

हम्म्म्म्म्म्म्म्म. तो तुम गीतकार हो ?

जी- हमने कहा.

सुनो- वे बोले. हमने नये नियम लिखे हैं गीत और कविता के लिये. अब अगर तुन अपने आप को गीतकार कहलवाना चाहते हो तो पहले हमारे बताये हुए सारे नियम, अधिनियम और उपनियमों का पालन करो.

हम असमंजस में थे कि क्या कहें कि वे फिर बोले. देखो जाकर हमारे चिट्ठे पर पढ़ो कि हमने कैसे उन्ही नियमों के तहद कविता लिखी है और अपनी पहचान बनाई है. इतना कह कर वे लौटे और पलक झपकते उड़नतश्तरी ये जा और वो जा.

हमने सोचा कि चलो देखें कि क्या नियम हैं. पढ़े ( आप सब ने भी तो ) और सोचा कि उनके अनुसार प्रयोग करें. उन्होंने लिखा था कि छत पर जाकर सितारे देखें. अब चूंकि हमारे यहाँ छत पर चढ़ पाना असम्भव है तो हम बाहर लान में निकल लिये कि वहीं से सितारे देखेंगे. कुरता पाजामा तो हमारे पास थे नहीं, इसलिये नाईट सूट पहना हुआ था.

बाप रे बाप. बाहर का तापमान ३३ डिग्री फ़हरनहाइट, आसमान पर बादल छाये हुए हलके हल्के गिरती हुई बर्फ़ की फ़ुहियाँ . सारे नियम धरे के धरे रह गये पर साहब कविता फिर भी बनी-

बादलों से घिरा गगन
दिखे नहीं तारे
गिनती ही भूले हम
सर्दी के मारे
झट से जुकाम हुआ
और ऐसा काम हुआ
नाक लाल हो गई
छींकों के मारे

हमें गर्व हुआ कि अब तो हमें स्वामीजी का आशीर्वाद मिल ही जायेगा. हमने सुबह होते ही फोन घुमाया और अपनी " कविता " सुना दी. सुनते ही भड़क उठे-

तुम तो हमारी लुटिया डुबोने पे उतारू हो रहे हो. इस बकवास को कविता कहोगे तो हम एक चौथाइ चुल्लू के सहारे ही पार हो लेंगे. अरे कविता देखनी है तो अरुणिमा की बात पर जाओ, अन्तर्मन का सहारा लो, दिल के दर्म्याँ झांको ,मेरी कठपुतलियों को देखो और मोहिन्दर से सीखो. कलश से घूँट लगाओ. जाओ दोबारा होमवर्क करके लाओ.

साहब , हम भी मरता क्या न करता के अंदाज़ मेम सब जगह भटके और फिर जो असर हमारे ऊपर हुआ शत नमन पढ़ कर, वो आपके सामने पेश कर रहा हूँ. स्वामीजी से पूर्व स्वीकॄति इसलिये नहीं ली कि डर था कहीं वे फिर अपनी त्यौरियाँ नहीं चढ़ा लें ( यह है बतर्ज़- शत शत नमन तुम्हें करता हूँ )

तुम्हें देख कविता से मेरा नाता, कहने में डरता हूँ
शीश झुका कर चुप रहता हूँ

अमारूपिणे ! रूप तुम्हारा है मसान की बुझी राख सा
उलटे पड़े तवे के पैंदे जैसी अद्भुत छवि तुम्हारी
वाणी जैसे चटक रहे हों धान, भाड़ में भड़भूजे के
बरसातों में टपक रहे छप्पर के जैसी याद तुम्हारी

कोयला कहे तुम्हारे रँग के आगे मैं पानी भरता हूँ

फ़िल्मों की ललिता पवार तुम, र्रामायण की तुम्हीं मंथरा
जो पड़ौस से लड़ने को आतुर रहती है वह भटियारी
घातक हो तुम कोयले की खदान में रिसती हुई गैस सी
तुम्हीं पूतना, तुम्हीं ताड़का, तुम खर-दूषण की महतारी

घटाटोपिणी ! नाम तुम्हारा लेने में भी मैं डरता हूँ

तुम ज्यों सहस कोस पर नंगे पांवों में पड़ गई विवाई
जली आग पर पड़ते जल से उठते धुँए की अँगड़ाई
तुम हो रश आवर के ट्रैफ़िक में जो बढ़ती आपाधापी
तुम्हें देख पावस की काली अँधियरी रातें शरमाईं

शब्द कोश में शब्द न मिलते कितनी मैं कोशिश करता हूँ
बस मैं नमन तुम्हें करता हूँ.


अब क्योंकि यह सब कुछ स्वामीजी के आदेश पर लिखा गया है तो आपको खुली छूट है , चाहे तो इसे अन्यथा लें या न लें. अन्यथा लें तो स्वामीजी को पकड़ लें और उन्हें भुगतान कर दें. हम तो अब निकलते हैं

Thursday, April 5, 2007

मुक्तक महोत्सव-२३ से २७ तक

मित्रों,
इस सप्ताह के ५ मुक्तक आपकी सेवा में पेश हैं. आशा है टिप्पणियों के माध्यम से आप इस महोत्सव को सफल बनायेंगे.

मुक्तक महोत्सव



मन के कागज़ पे बिखरे जो सीमाओं में,रंग न थे, मगर रंग थे आपके
बनके धड़कन जो सीने में बसते रहे,मीत शायद वे पदचिन्ह थे आपके
जो हैं आवारा भटके निकल गेह से आँसुओं की तरह वो मेरे ख्याल थे
और रंगते रहे रात दिन जो मुझे, कुछ नहीं और बस रंग थे आपके



देख पाया है जिनको ज़माना नहीं. रंग थे मीत वे बस तुम्हारे लिये
रंग क्या मेरे तन मन का कण कण बना मेरे सर्वेश केवल तुम्हारे लिये
सारे रंगों को आओ मिलायें, उगे प्रीत के जगमगाती हुई रोशनी
रंग फिर आयेंगे द्वार पर चल स्वयं, रंग ले साथ में बस तुम्हारे लिये



आपके आगमन की प्रतीक्षा लिये, चान्दनी बन के शबनम टपकती रही
रात की ओढ़नी जुगनुओं से भरी दॄष्टि के नभ पे रह रह चमकती रही
मेरे आँगन के पीपल पे बैठे हुए, गुनगुनाती रही एक कजरी हवा
नींद पाजेब बाँधे हुए स्वप्न की, मेरे सिरहाने आकर मचलती रही



मेरी अँगनाई में मुस्कुराने लगे, वे सितारे जो अब तक रहे दूर के
दूज के ईद के, चौदहवीं के सभी चाँद थे अंश बस आपके नूर के
ज़िन्दगी रागिनी की कलाई पकड़, एक मल्हार को गुनगुनाने लगी
आपकी उंगलियाँ छेड़ने लग पड़ीं तार जब से मेरे दिल के सन्तूर के.



आप की याद आई मुझे इस तरह जैसे शबनम हो फूलों पे गिरने लगी
मन में बजती हुई जलतरंगों पे ज्यों एक कागज़ की कश्ती हो तिरने लगी
चैत की मखमली धूप को चूमने, कोई आवारा सी बदली चली आई हो
याकि अंगड़ाई लेती हुइ इक कली, गंधस्नात: हो कर निखरने लगी



* ** * * ** *


Tuesday, April 3, 2007

कविता, कम्प्यूटर और चर्चा

कल शाम को अचानक श्री राकेशजी मिल गये. हम उमेश अग्निहोत्री ( जो छह महीने के बाद भारत से लौटे हैं ) से मिलने गये थे, वहां वे भी पहुंचे हुए थे और बड़ी बदहवासी की हालत में थे. पूछने पर बताया कि आज चिट्ठा चर्चा करने की उनकी बारी है. अधिकतर वे चर्चा अपने लंच समय में प्रारंभ करते हैं और शाम को घर पर पूरी करते हैं. अब शाम को घर तो वे ग्यारह बजे से पहले पहुंचने वाले थे नहीं. हमने कहा कि आप यह जिम्मा किसी और पर क्यों नहीं डालते ( जैसा अक्सर होता है ) तो उन्होंने बताया कि समीर लाल जी को फोने किया तो वे अपने पादुका पुराण के पाठ में व्यस्त थे, फ़ुरसतियाजू को फ़ुरसत नहीं है.

हम भी सुन कर उदास हो गये कि हाय अब चिट्ठा चर्चा मंगलवार के दिन फिर गायब रहेगी. सहानुभूति के शब्दों में हमने कारण पूछा तो बोले कि कम्प्यूटर क्रैश हो गया. अब उनसे सीधे साधे शब्दों की आशा अक्सर होती नहीं है इसलिये हम कुछ काव्यात्मक मूड में उत्तर सुनने के बजाय सीधा साधा लट्ठमार वाक्य सुन कर हतप्रभ रह गये.

हमने कहा- मान्यवर कुछ कलात्मक तरीके से कारण बतायें तो उन्होंने सीधे हमारे ऊपर हुकुम दनदना दिया. आखिर तुम भी तो गीतकार का लेबल लगाये घूम रहे हो. तुम्ही न लिख डालो. तो साहेबान आपकी नजर है पूरा वॄत्तांत:-

एक तरफ़ तो कलापक्ष था
एक तरफ़ तकनीकी ज़िद्दी
दोनों अपनी ज़िद पर अटके
इसीलिये तो क्लैश हो गया
कला पक्ष कविता का भारी
ताव नहीं तकनीक ला सकी
कम्प्यूटर घबराया तब ही
हार्ड ड्राइव संग क्रैश हो गया

उड़नतश्तरी, फ़ुरसतियाजी
सबने था हमको समझाया
जीतू भाई ने नारद के
हाथों संदेशा भिजवाया
पंडित श्री श्रीश ने बोला
रवि रतलामी ने जुगाड़ दी
लेकिन उन सबकी तकनीकें
कविता ने फ़ौरन पछाड़ दीं

यू एस बी में जो बैकाअप था
वो भी सारा ट्रैश हो गया

फ़ाइल सब एक्सेल एक्सेस की
पता नहीं है कहां खो गईं
माऊस को कितना चटकाया
पर डायरेक्ट्री सभी सो गई
न मैकेफ़ी, न ही नार्टन
कोई भी कुछ काम न आया
नीली पड़ गई स्क्रीनों ने
राम भरोसे रह, बस गाया

केवल एक दिखाता कविता
जब लगता रिफ़्रैश हो गया

अब दूजा कम्प्यूटर लायें
इसके सिवा न कोई चारा
कितनी कविता झेल सकेगा
सोच रहा मैं, वह बेचारा
गज़ल, गीत, कविता में चर्चा
और टिप्पणी भी छंदों में
फिर से पत्थर नहलायेंगे
वे गुलाब की रसगंधों में

करें , संभालें बात आप ही
मैं तो बस इम्प्रैस हो गया.

बस इतना ही

Thursday, March 29, 2007

मुक्तक महोत्सव-१८ से २२ तक

मित्रों,
आप लोगों के आग्रह पर मुक्तक महोत्सव पुनः प्रारंभ किया जा रहा है. अब यह साप्ताहिक होगा और हर मंगलवार को ५ मुक्तक आपकी सेवा में पेश किये जायेंगे.
आशा है टिप्पणियों के माध्यम से आप इस महोत्सव को सफल बनायेंगे.

प्रस्तुत मुक्तक इसी महोत्सव का भाग हैं.



भोर से साँझ तक मेरे दिन रात में आपके चित्र लगते रहे हैं गले
मेरे हर इक कदम से जुड़े हैं हुए, आपकी याद के अनगिनत काफ़िले
आपसे दूर पल भर न बीता मेरा, मेरी धड़कन बँधी आपकी ताल से
आपकी सिर्फ़ परछाईं हूँ मीत मैं, सैकड़ों जन्म से हैं यही सिलसिले



गुलमोहर, मोतिया चंपा जूहीकली, कुछ पलाशों के थे, कुछ थे रितुराज के
कुछ कमल के थे,थे हरर्सिंगारों के कुछ,माँग लाया था कुछ रंग कचनार से
रंग धनक से लिये,रंग ऊषा के थे, साँझ की ओढ़नी से लिये थे सभी
रंग आये नहीं काम कुछ भी मेरे, पड़ गये फीके सब, सामने आपके



तुमको देखा तो ये चाँदनी ने कहा, रूप ऐसा तो देखा नहीं आज तक
बोली आवाज़ सुनकर के सरगम,कभी गुनगुनाई नहीं इस तरह आज तक
पाँव को चूमकर ये धरा ने कहा क्यों न ऐसे सुकोमल सुमन हो सके
केश देखे, घटा सावनी कह उठी, इस तरह वो न लहरा सकी आज तक



मुस्कुराईं जो तुम वाटिकायें खिलीं, अंश लेकर तुम्हारा बनी पूर्णिमा
तुमने पलकें उठा कर जो देखा जरा, संवरे सातों तभी झूम कर आसमां
प्यार करता हूँ तुमसे कि सिन्दूर से करती दुल्हन कोई ओ कलासाधिके
मेरा चेतन अचेतन हरैक सोच अब ओ सुनयने तुम्हारी ही धुन में रमा.



मेरे मानस की इन वीथियों में कई, चित्र हैं आपके जगमगाये हुए
ज़िन्दगी के हैं जीवंत पल ये सभी, कैनवस पर उतर कर जो आये हुए
चाय की प्यालियाँ, अलसी अँगड़ाईयाँ, ढ़ूँढ़ते शर्ट या टाँकते इक बटन
देखा बस के लिये भी खड़े आपको पर्स,खाने का डिब्बा उठाये हुए



* ** * * ** *


Wednesday, March 28, 2007

चलो घर परिवार की बातें करें

ये न समझें कि घबरा गये या मैदान छोड़ दिया. भाई साहब हमें आता है प्रदर्शन करना और वह हमारा चिट्ठा सिद्ध अधिकार है सो हमने किया. अब यह बात दूसरी है कि आप हमें उकसा रहे हैं कि हम फिर मुक्तकों के तीर चलायें. यों तो हमारा तरकस भरा हुआ है पर हम सारे बान एक साथ अब नहीं छोड़ेंगे. परम पूज्य प्रात:स्मरणीय, वन्दनीय , आदरणीय और श्रद्धेय श्री............जी के आदेशानुसार अब मुक्तकों की फ़ुहारें सप्ताह में एक ही दिन बरसेंगी. इसलिये अब शेष रह गईं है सीधी साधी घर परिवार की बातें

आओ बैठो यार बात कुछ हों घर की परिवार की
पूरी तनख्वाह खर्च हुई पर बाकी बचे उधार की

कोई अंतरिक्ष में उड़ना चाह रहा है उड़ जाये
कोई पथ में जबरन मुड़ना चाह रहा है, मुड़ जाये
कोई बाथरूम में गाना चाह रहा है, तो गाये
कोई लिखना चाह रहा है, लिखे, न समझे, समझाये

बंटी की चाची ने डाला बरनी भरे अचार की
आओ बैठो बात करेंगे, अब घर की परिवार की

किसका बेटा डायरेक्टर है, किसकी अटकी गाड़ी है
कौन तिकड़मी ? कौन कहाँ पर कितना बड़ा जुगाड़ी है
किसके घर स्काच बह रही, और कहां पर ताड़ी है
मंत्रालय का कौन सचिव है, कितना कौन अनाड़ी है

कुछ गंगा की, कुछ पंडों की, कुछ संगम , मंझधार की
आओ यारो बातें कर लें सच्ची अब घरबार की

चलें पान की दूकानों पर, चर्चा करें चुनावों की
गिरते हुए किसी के, कुछ के उलटे हुए नकाबों की
धुले पांव के लिये तरसती राजनीति की नावों की
कौन हवा के साथ बहे, किसके विपरीत, बहावों की

हासिल न हो कुछ तो क्या है ? करें जीत की हार की
आओ दो पल बातें कर लें अपने घर परिवार की

किसके बल्ले में कितना दम, कौन मारता चौका है
कौन दूसरों का दुख बाँटे, कौन तलाशे मौका है
कौन निकलता घर के बाहर, किसको किसने रोका है
और कहाँ किसकी बिल्ली पर किसका कुत्ता भौंका है

डाक्टर की हड़तालों की हों, लावारिस बीमार की
बातें करें आओ हम मिल कर कुछ तो अब संसार की

किसका भाई रिश्वत लेता, कौन गया अमरीका है
किसके जागे हुए भाग से टूटा कोई छींका है
कौन कहां पर बिल्कुल फूहड़, किसमें खूब सलीका है
किसके घर की मीठी नीमें, किसका शर्बत फ़ीका है

आया. आकर निकल गया जो बिना शोर, त्यौहार की
आओ भाई बात करें कुछ हम घर की परिवार की

छोड़ो यारो अगर समस्या, जिसे भुगतना भुगतेंगें
ज्यादा से ज्यादा क्या होगा शोर शराबा कर लेंगें
दस बारह खबरें छप लेंगी, भाषण वाषण हो लेंगें
फिर किस्मत का खेल बता कर चुप्पी धर कर बैठेंगे

करें विरोधों की कुछ बातें, कुछ हों जयजयकार की
नारदजी की गुंजित वीणा के हर झंकॄत तार की

फ़ुरसतियाजी के जो पंद्रह गज लम्बे, पैगामों की
उड़नतश्तरी ने जो जीते, पिछले बरस, इनामों की
संजय,पंकज, तरकश पर जो खींच ला रहे नामों की
रवि रतलामी की लिनक्स पर जो गुजरी हैं शामों की

नाहरजी के चिट्ठाकारी से नित बढ़े दुलार की
जीतू भाई चलो आज कुछ बातें हों परिवार की

Tuesday, March 27, 2007

मुक्तक नहीं-- प्रश्न

कौन अनुभूतियों को दिये जा रहा शब्द, मेरे, अभी जान पाया नहीं
काव्य के शिल्प में रंग किसने भरा, ये अभी तक मैं पहचान पाया नहीं
भाव को छंद में बाँध किसने दिया, कौन होठों को देकर गया रागिनी
मेरे सुर में कोई और गाता रहा, ये सुनिश्चित है मैने तो गाया नहीं




Monday, March 26, 2007

खेद! महा खेद!! मुक्तक महोत्सव रुका!

कृप्या इस आलेख को पढ़ने के लिये यहाँ क्लिक करें.

किन्हीं कारणों से पुराना लेख नारद से खुल नहीं रहा है.

खेद! महा खेद!! मुक्तक महोत्सव रुका!

बड़ी उम्मीदों, मंशाओ और हर्षोल्लास के साथ अभी परसों रात ही तो हमने 'मुक्तक महोत्सव' की घोषणा की थी. बहुत महेनत के साथ पिछले ६/७ माह में तैयारी की थी. हर रोज नित नियम के साथ ५ से ७ मुक्तक तैयार किये यानि कुल मिला कर लगभग १००० मुक्तक. दफ्तर जाने में नागा पड़ा, मगर मुक्तक लेखन में एक दिन भी नहीं. छोटी मोटी नुमाईश होती, तो भी चल जाता कि किसी दिन न भी लिखें मगर हम तो महोत्सव मनाने की तैयारी कर रहे थे-मुक्तक का महाकुँभ-मानो बारह वर्षों में एक बार होना है. बस एक उन्माद सा छाया था.

हाँ साहब, बिल्कुल महाकुँभ सा माहौल याद आ गया इलाहाबाद का. महिनों से हर तरफ कुँभ ही कुँभ. जहाँ नजर पड़े, बस कुँभ और उसकी तैयारी. सड़कें रोक दी गईं, घाट तक पहुँचने के मार्ग परिवर्तित कर दिये गये. हर तरफ विद्युत आपूर्ति में कटौती, ताकि घाट जगमगाता रहे, पूरा शासन तंत्र जूझ पड़ा. बाकि चीजों से मतलब नहीं, बस कुँभ. शहर में पानी की सप्लाई नियंत्रित कर दी गई, सब घाट की तरफ प्रवाहित कर दी गई. आम जनता के लिये, आम जनता की आस्था के लिये, आम जनता को परेशानी में डाल कर, वाह!! क्या पंडाल सजाये जाते हैं!! क्या घाट सजाये जाते हैं!! अब महोत्सव है तो यह सब तो होगा ही. सब को परेशानी भी होगी, मगर फिर भी उत्सव मनाया जायेगा.जनता के सामूहिक रिसोर्सेज यानि की संसाधनों, उनकी सुविधायें, उनके अधिकार सभी कुछ उनके लिये ही खटाई में पड़ जाते हैं मगर आस्था का प्रश्न है, जरुर मनाया जायेगा, मनाना भी चाहिये और हर बार पिछली बार से वृहद स्तर पर.


हर तरफ विद्युत आपूर्ति में कटौती, ताकि घाट जगमगाता रहे, पूरा शासन तंत्र जूझ पड़ा. बाकि चीजों से मतलब नहीं, बस कुँभ. शहर में पानी की सप्लाई नियंत्रित कर दी गई, सब घाट की तरफ प्रवाहित कर दी गई. आम जनता के लिये, आम जनता की आस्था के लिये, आम जनता को परेशानी में डाल कर, वाह!! क्या पंडाल सजाये जाते हैं!! क्या घाट सजाये जाते हैं!! अब महोत्सव है तो यह सब तो होगा ही. सब को परेशानी भी होगी, मगर फिर भी उत्सव मनाया जायेगा.


इसी तरह हमने भी बड़े अरमानों के साथ मुक्तक महोत्सव की तैयारी की और शुरु हो गये परसों से मनाना. जनता की फरमाईशा पर इसका आयोजन किया गया. वही चिट्ठाकार जो लिखते हैं, नारद से होते हुये हम उन तक पहुँचते हैं और पढ़ते हैं. जवाब में वो भी नारद के मार्ग से होते हुये हम तक पहुँचते हैं और पढ़ते हैं. हौसला बढ़ाते हैं, फरमाईशें करते हैं. उसी फरमाईश के चलते इस महोत्सव का आयोजन किया गया.

अभी एक पूरा दिन भी नहीं बीता था कि कनाडा से उड़न तश्तरी घरघराती हुई हमारी छत पर उतरी और कहने लगी, अरे भाई साहब, यह क्या गजब कर रहे हैं? नारद की सामूहिक भूमि पर आप तो पूरा अधिग्रहण कर बैठ गये और पता चला है ऐसा कई माह तक चलेगा. बाकी के लोगों का क्या होगा? वो कहाँ जायें? वो आते हैं और बस आप धकिया दे रहे हैं, यह कैसा उत्सव?

हमने कहा कि "सुनो भई, उत्सव में तो ऐसा ही होता है और उस पर से, यह तो महोत्सव है. जनता की आस्था है और उनकी फरमाईश है, तो तकलीफ तो उठानी पड़ेगी. उनकी तो आदत है, वो तो गैर फरमाईशी में भी रोज उठा ही रहे हैं तो हम तो फरमाईशी महोत्सव मना रहे हैं, इसमें आपको क्या परेशानी है? हद करते हो आप भी. क्या मन का लिख भी नहीं सकते. काहे नियंत्रण की बेड़ियां पहना रहे हो. जितनी बार लिखेंगे, उतनी बार ही तो छपेंगे न!! आप भी लिखो."


एक ही बात सुनी पोस्ट दर पोस्ट दिन भर
हमने कुछ मुक्तक सुनाये तो बुरा मान गये...


ऊड़न तश्तरी सकपका गई. हम समझ गये कि वो नारद की तरफ से आई थी हमें रोकने. जब हमने पूछा तो उगल भी दिये कि "हाँ, नारद से बात तो हुई है आज दिन में." फिर हमने देखा कि नारद के कर्ताधर्ता जीतू भाई भी दिन में आकर अपनी राय जाहिर कर गये हैं.उनकी राय भी काबिले गौर थी.



बाकी सब तो ठीक है, लेकिन ये बताया जाए, कि सारे मुक्तक एक ही दिन काहे पब्लिश के जा रहे हो। अमां यार! एक दिन मे एक करो, दो करो, इत्ते करोगे तो लोग बवाल कर देंगे। कंही ऐसा ही ना हो कि लोग मुक्तक का नाम सुनते ही भाग खड़ें हो।
हम इत्ती मुश्किल से लोगों को पकड़ पकड़ तक नारद पर ले आएं, और भगाएं, ऐसा जुल्म ना करो माईबाप।



उड़न तश्तरी तो घरघरा कर लौट गई और न जाने उस घरघारहट के साथ कितने प्रश्न छोड़ गई. हम आत्म मंथन और चिंतन में लीन हो गये.

लगने लगा कि यह उचित नहीं. नारद एक सामूहिक संसाधन है. एक सार्वजनिक मंच है. सबका इस पर बराबरी का अधिकार है. इसका दुरुपयोग सिर्फ़ अपनी महत्ता जाहिर करने के लिये उचित नहीं है. भले ही कुछ लोग इस बात को समझने से इंकार करें मगर सभी को बराबरी से नारद के प्रथम पृष्ठ पर कुछ समय तक बने रहने का अधिकार है ताकि पाठक उन तक पहुँच सकें और उनकी पोस्ट के विषय में जान सकें. अगर एक ही व्यक्ति अपनी ढ़ेरों पोस्ट एक के बाद एक करता चला जायेगा तो अन्य लोगों को तो मौका ही नहीं मिलेगा, थोड़ी देर के लिये भी नहीं कि वो प्रथम पृष्ठ पर रह पाये. हालांकि नारद ने प्रथम पन्ने पर पोस्टों की संख्या काफी बढ़ा दी है मगर फिर भी एक संख्या तो है ही.


नारद एक सामूहिक संसाधन है. एक सार्वजनिक मंच है. सबका इस पर बराबरी का अधिकार है. इसका दुरुपयोग सिर्फ़ अपनी महत्ता जाहिर करने के लिये उचित नहीं है. भले ही कुछ लोग इस बात को समझने से इंकार करें मगर सभी को बराबरी से नारद के प्रथम पृष्ठ पर कुछ समय तक बने रहने का अधिकार है ताकि पाठक उन तक पहुँच सकें और उनकी पोस्ट के विषय में जान सकें. अगर एक ही व्यक्ति अपनी ढ़ेरों पोस्ट एक के बाद एक करता चला जायेगा तो अन्य लोगों को तो मौका ही नहीं मिलेगा, थोड़ी देर के लिये भी नहीं कि वो प्रथम पृष्ठ पर रह पाये.



इन्हीं सब बातों पर चिंतन करते हुये हम ने निर्णय लिया कि यह महोत्सव, जो कि पाठकों की फरमाईश पर मनाया जा रहा था, उसका स्वरुप उन्हीं पाठकों की सहूलियत और संसाधनों की सीमितता को देखते हुये बदल दिया जाये ताकि सभी को नारद के इस्तेमाल का बराबरी का मौका मिले. अब नये स्वरुप में यह महोत्सव जल्द ही फिर आयेगा आपके सामने. तब तक के लिये इंतजार करिये.

Saturday, March 24, 2007

मुक्तक महोत्सव-१७

मित्रों,
पिछले कुछ दिनों से आप लोगों के द्वारा मुक्तक की पेशकश के लगातार आग्रह को अब टाल पाना मेरे लिये संभव नहीं हो पा रहा है. अगले कुछ माह के लिये मैं मुक्तक महोत्सव मना रहा हूँ. इस उत्सव के दौरान आपकी सेवा में हर रोज अनेकों स्व-रचित मुक्तक पेश करुँगा. पहले पढ़ने के लिये और फिर अगर संभव हुआ तो इसी क्रम में अपनी आवाज में गाकर भी. आप इन्हें इत्मिनान से पढ़े, इस लिये एक एक करके पोस्ट करुँगा ताकि आप इन मुक्तकों का संपूर्ण आनन्द ले सकें. आशा है टिप्पणियों के माध्यम से आप इस महोत्सव को सफल बनायेंगे.

प्रस्तुत मुक्तक इसी महोत्सव का भाग है.



जाते जाते ठिठक कर मुड़े आप औ' देखा कनखी से मुझको लजाते हुए
दाँत से होंठ अपना दबा आपने कहना चाहा था कुछ बुदबुदाते हुए
वक्त का वह निमिष कैद मैने किया स्वर्ण कर अपनी यादों के इतिहास में
अब बिताता हूँ दिन रात अपने सदा, आपके शब्द सरगम में गाते हुए

मुक्तक महोत्सव-१६

मित्रों,
पिछले कुछ दिनों से आप लोगों के द्वारा मुक्तक की पेशकश के लगातार आग्रह को अब टाल पाना मेरे लिये संभव नहीं हो पा रहा है. अगले कुछ माह के लिये मैं मुक्तक महोत्सव मना रहा हूँ. इस उत्सव के दौरान आपकी सेवा में हर रोज अनेकों स्व-रचित मुक्तक पेश करुँगा. पहले पढ़ने के लिये और फिर अगर संभव हुआ तो इसी क्रम में अपनी आवाज में गाकर भी. आप इन्हें इत्मिनान से पढ़े, इस लिये एक एक करके पोस्ट करुँगा ताकि आप इन मुक्तकों का संपूर्ण आनन्द ले सकें. आशा है टिप्पणियों के माध्यम से आप इस महोत्सव को सफल बनायेंगे.

प्रस्तुत मुक्तक इसी महोत्सव का भाग है.



आप मुस्काये ऐसा लगा चाँद से है बरसने लगी मोतियों की लड़ी
सामने आके दर्पण के जलने लगी, जैसे दीपवली की कोई फुलझड़ी
हीरकनियों से छलकी हुई दोपहर,,नौन की वादियों में थिरकने लगी
रोशनी की किरण इक लजाती हुई, जैसे बिल्लौर की पालकी हो चढ़ी

मुक्तक महोत्सव-१५

मित्रों,
पिछले कुछ दिनों से आप लोगों के द्वारा मुक्तक की पेशकश के लगातार आग्रह को अब टाल पाना मेरे लिये संभव नहीं हो पा रहा है. अगले कुछ माह के लिये मैं मुक्तक महोत्सव मना रहा हूँ. इस उत्सव के दौरान आपकी सेवा में हर रोज अनेकों स्व-रचित मुक्तक पेश करुँगा. पहले पढ़ने के लिये और फिर अगर संभव हुआ तो इसी क्रम में अपनी आवाज में गाकर भी. आप इन्हें इत्मिनान से पढ़े, इस लिये एक एक करके पोस्ट करुँगा ताकि आप इन मुक्तकों का संपूर्ण आनन्द ले सकें. आशा है टिप्पणियों के माध्यम से आप इस महोत्सव को सफल बनायेंगे.

प्रस्तुत मुक्तक इसी महोत्सव का भाग है.



आपने इस नजर से निहारा मुझे, बज उठीं हैं शिराओं में शहनाईयाँ
अल्पनाओं के जेवर पहनने लगीं, गुनगुनाते हुए मेरी अँगनाइयाँ
आपकी चूनरी का सिरा चूम कर पतझड़ी शाख पर फूल खिलने लगे
बन अजन्ता की मूरत सँवरने लगीं भित्तिचित्रों में अब मेरी तन्हाइयाँ

मुक्तक महोत्सव-१४

मित्रों,
पिछले कुछ दिनों से आप लोगों के द्वारा मुक्तक की पेशकश के लगातार आग्रह को अब टाल पाना मेरे लिये संभव नहीं हो पा रहा है. अगले कुछ माह के लिये मैं मुक्तक महोत्सव मना रहा हूँ. इस उत्सव के दौरान आपकी सेवा में हर रोज अनेकों स्व-रचित मुक्तक पेश करुँगा. पहले पढ़ने के लिये और फिर अगर संभव हुआ तो इसी क्रम में अपनी आवाज में गाकर भी. आप इन्हें इत्मिनान से पढ़े, इस लिये एक एक करके पोस्ट करुँगा ताकि आप इन मुक्तकों का संपूर्ण आनन्द ले सकें. आशा है टिप्पणियों के माध्यम से आप इस महोत्सव को सफल बनायेंगे.

प्रस्तुत मुक्तक इसी महोत्सव का भाग है.



भोर की पालकी बैठ कर जिस तरह, इक सुनहरी किरण पूर्व में आ गई
सुन के आवाज़ इक मोर की पेड़ से, श्यामवर्णी घटा नभ में लहरा गई
जिस तरह सुरमई ओढ़नी ओढ़ कर साँझ आई प्रतीची की देहरी सजी,
चाँदनी रात को पाँव में बाँध कर, याद तेरी मुझे आज फिर आ गई