Monday, May 19, 2014

वात्सल्य का कम्बल

 
हृदय के प्रथम स्पंदन से नभों के सातवें तट तक 
लपेटा ज़िंदगी ने हर घड़ी वात्सल्य का कम्बल 
 
ठिठुरती ठण्ड मे बनता रहा है स्रोत ऊष्मा का
 बरसते मेंह में छाता बना है शीश पर तन कर 
मरुस्थल के तपे पथ पर चले हैं पांव जब दो डग
घिरा है उस घड़ी नभ पर उमड़ती बदलियाँ  बन कर 
 
सुधी के दूर तक फैले हुये विस्तार में अपने
परस की गंध को बुनता रहा हर इक घड़ी हर पल 
 
थिरकता जल तरंगों सा छुअन पुरबाइयों की ले
सदा अनुराग भरता हो शहद भीगा हुआ चन्दन
किनारी के सिरे छूकर दिवस की अलगनी पे आ
लटकते भोर के सँग में बहारों से लदे मधुवन
 
मिला है ज़िन्दगी को ये सहज वरदान बन कर के
विगत के कोटि पुण्यों का प्रसादी रूप यह प्रतिफ़ल
 
भ्रमों की धुंध ने जब भी उपेक्षायें कभी की हैं
घनेरे हो गये है और इसके रँगमय धागे
उॠण होती नहीं है ज़िन्दगी की सांस इन इससे
न इसने कर्ज के लेखे कभी अपने कहीं माँगे

जुलाहे ने बुना इसको पिरो कर लक्ष चौरासी
निरंतर तंतुओं का प्रीत में डूबा हुआ हर बल