Wednesday, July 29, 2009
समीर भाई-जन्मदिन शुभ हो
उसका जन्मदिवस आया जो कभी न होता क्रुद्ध
कभी न होता क्रुद्ध, सदा मुस्कान बिखेरे
सबके उसके चिट्ठे पर लगते हैं फ़ेरे
कोई रहता नहीं बधाई उसे दिये बिन
शुभ समीर हो आज जनम का फिर से ये दिन
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Monday, July 27, 2009
आज फिर बदली हुई हैं केंचुलें
लड़खड़ाते ज़िन्दगी के कुछ अधूरे प्रश्न लेकर
चाहना है उत्तरों की माल अपने हाथ आये
कंठ का स्वर हो गया नीलाम यों तो मंडियों में
आस लेकिन होंठ नूतन गीत इक नित गुनगुनाये
मुट्ठियों की एक रेखा में घिरीं झंझायें कितनी
और है सामर्थ्य कितनी, कौन अपनी जानता है
चक्रव्यूहों में पलों के घिर गये हैं उन पगों की
संकुचित सीमायें कितनी ? कौन है ! पहचानता है
दंभ के लेकिन विषैले नाग से जो डँस गये हैं
सोच के उनके भरम की हैं चिकित्सायें न बाकी
रिक्त पैमाना,सुराही, रिक्त सारे मधुकलश हैं
त्याग मदिरालय, विलय एकाकियत में आज साकी
खो चुके विश्वास की जो पूँजियाँ, अपने सफ़र में
वे छलावों के महज, सिक्के भुनाना जानते हैं
आईने में जो नजर आता उसे झुठला सके क्या
बिम्ब जितने भी बनें, क्या वे उन्हें पहचानते हैं ?
टूट कर बिखरे सभी घुँघरू, मगर कुछ पायलों की
चाह है इक बार फिर से नॄत्य में वे झनझनायें
शब्द से परिचय मिटा कर आज भाषा के विरोधी
माँगते हैं इक हितैषी की तरह सम्मान पायें
Friday, July 24, 2009
अब हैं नई नई उपमायें
बदल रही हैं कविता में भी जो प्रयुक्त होती उपमायें
तुम अलार्म की घड़ी दूर जो रखती है वैरन निंदिया से
और मुझे दफ़्तर जाने में देर नहीं जो होने देती
और तुम्ही तो मोहक वाणी जीपीएस के निर्देशन की
कभी अजनबी राहों पर भी जो मुझको खोने न देती
तुमसे पल भी दूर रहूं मौं, सुभगे यह तो हुआ असंभव
तुम न साथ को छोड़ सकोगी कितनी भी आयें विपदायें
तुम रिपोर्ट वह ट्रैफ़िक वाली जिसके बिना गुजारा मुश्किल
तुम वह वैदर फ़ोरकास्ट हो, दिन को पल करती आवंटित
तुम मुझको प्रिय इतनी, जितनी सेल हुआ करती शापर को
या क्रिसमस पर किसी माल में हुई पार्किंग हो आरक्षित
तुम हो स्वर की डाक फोन की मोबाईल की लैंडलाईन की
बिना तुम्हारे क्या संभव है सामाजिक जीवन जी पायें
तुम ब्लकबैरी हो मेरी और नोटबूक प्रिये तुम्ही हो
और तुम्ही तो हो मीटिंग में साथ रहे जो लेजर पाईंटर
वेवनार की तुम्ही प्रणेता बिना तुम्हारे सब स्थिर होता
इर्द गिर्द सब हुआ तुम्हारे सूरज चन्दा जंतर मंतर
अंतरजाल विचरने वाली, एकरूप तुम पीडीएफ़ हो
बिना तुम्हारे सब अक्षम हैं खुद को परिभाषित कर पायें
Monday, July 13, 2009
बरखा- अतीत के झरोखों से
किसी देवांगना के स्नात केशों से गिरे मोती
विदाई में अषाढ़ी बदलियों ने अश्रु छलकाए
किसी की पायलों के घुँघरुओं ने राग है छेड़ा
किसी गंधर्व ने आकाशमें पग आज थिरकाए
उड़ी है मिटि्टयों से सौंध जो इस प्यास को पीकर
किसी के नेह के उपहार का उपहार है शायद
चली अमरावती से आई हैयह पालकी नभ में
किसी की आस का बनता हुआ संसार है शायद
सुराही से गगन की एक तृष्णा की पुकारों को
छलकता गिर रहा मधु आज ज्यों वरदान इक होकर
ये फल है उस फसल का जोकि आशा को सँवारे बिन
उगाई धूप ने है सिंधु में नित बीज बो बो कर
- राकेश खंडेलवाल
5 सितंबर 2005
Tuesday, July 7, 2009
तुमने कहा न तुमको छेड़ा
इसीलिये छेड़ा है मैने तुमको सीटी एक बजाकर
हमदर्दी के कारण केवल कदम उठाया है ये सुन लो
अब ऐसा मत करना मेरे गले कहीं पड़ जाओ आकर
नहीं छेड़ती सुतली जैसी ज़ुल्फ़ तुम्हारी कभी हवा भी
बेचारी कोशिश करती है, लेकिन जुटा न पाती हिम्मत
एक बार चुनरी अटकी थी रेहड़ी से संकरी गलियों में
और किसी की हो पाती ये संभव हुआ नहीं है ज़ुर्रत
कोई पास तुम्हारे आकर खड़ा हो सके नामुमकिन है
जब तुम घर से निकला करती हो लहसुन की कली चबाकर
देह यष्टि का क्या कहना है, मिट्टी का लौंदा हो कोई
रखा हुआ ढेरी में जैसे कहीं चाक पर कुंभकार के
और तुम्हारी बोली की क्या बात कहूँ मैं शब्द नहीं हैं
संटी खाकर चीखा करता है भेंसा जैसे डकार के
मुँह को ढाँपे तुम्हें देख कर रात अमावस वाली शरमा
कोलतार ले गया तुम्हारे चेहरे से ही रंग चुरा कर
रहे चवन्नी छाप गली के जितने आशिक नजर चुराते
भूले से भी नहीं निगाहें नजर तुम्हारी से छू जायें
चमगादड़ सी आंखों वाली, कन्नी तुमसे सब ही काटें
तुम वह, जिसका वर्णन करती हैं डरावनी परी कथायें
नुक्कड पर बस एक तुम्हारी बातें होतीं भिन्डी-नसिके
साहस नहीं आईने का भी होता जाये सच बतलाकर
Saturday, July 4, 2009
मैं कौन हूँ
सोच मैं भी रहा हूँ कि मैं कौन हूँ
मैं अधूरी तमन्नाओं की नज़्म हूँ
याकि आधा लिखा रह गया गीत हूँ
जोकि इतिहास के पृष्ठ में बन्द है
पीढ़ियों की बनाई हुई रीत हूँ
प्रश्न करता रहा हर नया दिन यही
क्या है परिचय मेरा और क्या नाम है
एक साया हूँ मैं जेठ की धूप का
या कि उमड़ा नहीं वो जलद श्याम है
उत्तरों की लिये प्यास भटका किया
अपने स्वर को गंवा कर खड़ा मौन हूँ
सोच मैं भी रहा हूँ कि मैं कौन हूँ
उंगलियों ने जिसे तार को छेड़ कर
नींद से न उठाया वो आवाज़ हूँ
कैद सीने की गहराईयों में रहा
उम्र भर छटपटाता वही राज हूँ
मैं हूँ निश्चय वही पार्थ के पुत्र का
व्यूह को भेदने के लिये जो चला
मैं, जो तम की उमड़ती हुई आंधियाँ
रोकने के लिये दीप बन कर जला
जो अपेक्षायें आधी हैं चौथाई हैं
उनको पूरा किये जा रहा पौन हूँ
आप जानें, तो बतलायें मैं कौन हूँ
बिम्ब जो आईने में खड़े हो गये
अजनबी और भी अजनबी से लगे
जान पाने की कोशिश न पूरी हुई
बिम्ब वे अपने प्रतिबिम्ब से ही ठगे
सांस की वादियों में हवा में घुली
धड़कनों के बिलखते हुए शोर में
ढूँढ़ता मैं स्वयं को अभी तक रहा
हर ढली सांझ में हर सजी भोर में
गीत तो लिख दिया आपने था कहा
प्रश्न ्ये कह रहा जौन का तौन हूँ
सोच मैं भी रहा हूँ कि मैं कौन हूँ