Tuesday, November 20, 2007

खो गये चाँदनी रात में

चाँदनी रात के हमसफ़र खो गये चाँदनी रात में
बात करते हुए रह गये, क्या हुआ बात ही बात में

ज़िन्दगी भी तमाशाई है, हम रहे सोचते सिर्फ़ हम
देखती एक मेला रही, हाथ अपना दिये हाथ में

जिनक दावा था वो भूल कर भी न लौटेंगे इस राह पर
याद आई हमारी लगा आज फिर उनको बरसात में

जब सुबह के दिये बुझ गये, और दिन का सफ़र चुक गया
सांझ तन्हाईयां दे गई, उस लम्हे हमको सौगात में

तालिबे इल्म जो कह गये वो न आया समझ में हमें
अपनी तालीम का सिलसिला है बंधा सिर्फ़ जज़्बात में

आइने हैं शिकन दर शिकन, और टूटे मुजस्सम सभी
एक चेहरा सलामत मगर, आज तक अपने ख्यालात में

मेरे अशआर में है निहाँ जो उसे मैं भला क्या कहूँ
नींद में जग में भी वही, है वही ज्ञात अज्ञात में

ये कलांमे सुखन का हुनर पास आके रुका ही नहीं
एक पाला हुआ है भरम, कुच हुनर है मेरे हाथ में

ख्वाहिशे-दाद तो है नहीं, दिल में हसरत मगर एक है
कर सकूँ मैं भी इरशाद कुच, एक दिन आपके साथ में

Tuesday, November 13, 2007

गोष्ठी के बाद की रचना

कल शाम सुनीता जी ने अपने निवास पर एक गोष्ठी का आयोजन किया और चिट्ठाकारों से साक्षात करने का अवसर दिया. अरुण जी, नीलिमाजी , सुजाताजी, मोहिन्दर, संजीत सारथी के साथ साथ लालजी श्री समीर लाल, अजय,अविनश वाचस्पति, शैलेश और निखिल आदि से मुलाकात हुई. काकेश,सॄजन शिल्पी और प्रत्यक्षा की प्रतीक्षा गोष्ठी के अंतिम चरण तक रही. डा०कुंअर बेचैन, महेश जी और दिनेश रघुवंशी को सुनने का अद्वितीय मौका मिला.

इन सभी को सुनने के बाद लेखनी अपने अप कह उठी

छंद के बंद आते नहीं हैं मुझे, इसलिये एक कविता नहीं लिख सका
लोग कहते रहे गीत शिल्पी मुझे, शिल्प लेकिन नयाएक रच न सका
फिर भी संतोष है तार-झंकार से जो उमड़ती हुई है बही रागिनी
शब्द की एक नौका बहाते हुए,साथ कुछ दूर तक मैं उसे दे सका

-०-०-०-०-०-०-०-०-०-

बोझ उसका है कांधे पे भारी बहुत, जो धरोहर हमें दी है वरदाई ने
और रसखान की वह अमानत जिसे, बांसुरी में पिरोया था कन्हाई ने
हमको खुसरो के पगचिन्ह का अनुसरण नित्य करना है इतना पता है हमें
और लिखने हैं फिर से वही गीत कुछ, जिनको सावन में गाया है पुरवाई ने

-०-०-०-०-०-०-०-०-०-०-

लेखनी किन्तु अक्षम हुई है लगा शब्द से जोड़ पाती है नाता नहीं
मन पखेरु चला आज फिर उड़ कहीं, गीत कोई मगर गुनगुनाता नहीं
जो न संप्रेष्य होता स्वरों से कभी भाव, अभिव्यक्तियों के लिये प्रश्न है
भावनाओं का निर्झर उमड़ता तो है, धमनियों में मगर झनझनाता नहीं

-०-०-०-०-०-०-०-०

कांपते हैं अधर, थरथराती नजर, कंठ में कुछ अटकता हुआ सा लगे
और सीने की गहराईयों में कोई दर्द सहसा उमड़त हुआ सा लगे
चीन्ह पाने की असफ़ल हुईं कोशिशें, कोई रिश्ता नहीं अक्षरों से जुड़े
मात्रा की छुड़ा उंगलियां चल दिया,शब्द मेरा भटकता हुआ सा लगे