Monday, August 19, 2013

फिर से धूप धरा पर उतरी

फिर से  धूप धरा पर उतरी
 
 
बादल का घूँघट उतार कर खोल गगन के वातायन को
फ़ेंक मेघ का काला कम्बल,तोड़ मौसमी अनुशासन को
तपन घड़ें में भर कर रख दी
फ़िर से धूप धरा पर उतरी
 
उफ़नी हुई नदी के गुस्से को थोड़ा थोड़ा सहला कर
वृक्ष विहीना गिरि के तन को सोनहरा इक शाल उढ़ा कर
हिम शिखरों की ओर ताकते हुये तनिक मन में अकुलाकर
छनी हवा से हो गई उजरी
फ़िर से धूप धरा पर उतरी
 
रँगते हुये प्रेमियों के मन में भावों की चित्रकथायें
देते हुये बुलावा अधरों को अब मंगल गीत सुनायें
और नयन में आगत को कर रजताभी नव स्वप्न सजायें
प्राची में लहरा कर चुनरी
फ़िर से धूप धरा पर उतरी
 
पावसान्तक और हिमान्तक होती सुखदा याद कराते
और ग्रीष्म में क्रुद्ध न होगी इतनी अधिक अगन बरसाते
अगर प्रकृति का करते आदर हम सब अपने शीश नवाते
सच्चाई की लेकर पुटरी
फ़िर से धूप धरा पर उतरी

 

Tuesday, August 13, 2013

छक कर सुख दुख

छक कर सुख दुख के घूँटों को
कांधे पर लटका कर छागल
पाथेय सजा फ़िर यायावर
चल दिया पंथ में मन पागल
 
बिन जाने दुर्गम राहों में
अपनत्व नहीं बिलकुल उगता
बस कंकर जोड़ा करते है
पांवों के छालों से रिश्ता
 
पर दीवाने ने मुट्ठी में
रख ली हैं अपनी निष्ठायें
जिनसे विचलित कर सकी नहीं
आंधी बरसातें झंझायें
 
मौसम की विद्रुपताओं से
पल भर को भी तो डरा नहीं
जिस ओर हवायें चली, पंख
फ़ैला उस पथ वो मुड़ा नहीं
 
पथ पर के नीड़ तले रहजन
कितना भी डेरा डाले हों
षड़यंत्रों की सीमाओं में
बन्दी हो रहे उजाले हौं
 
अपने अंतस को जला
रोशनी करता अपनी राहों पर
निर्माण नीड़ का किया नये
विश्वास उसे निज बाँहों पर
 
तूफ़ान भले कितने आये
पल भर भी निश्चय डिगा नहीं
पथ की बाधाओं के आगे
मन एक बार भी झुका नहीं
 
छक कर सुख दुख के घूँटों को
चिर काल दीप बन जलना है
है विदित प्रहर विश्रामों के

केवल पल भर का छलना है.

Monday, August 12, 2013

कैसी हुई त्रासदी

जितने पत्र सँजो रक्खे थे उड़ा ले गईं उन्हें हवायें
कैसी हुई त्रासदी बैठो पास तनिक, तुमको बतलायें
 
अपनी अँगनाई पर ठहरे रहे सदा बिजली के घेरे
मन के गलियारों में उमड़े आ मावस से गहन अँधेरे
संवेदन की धड़कन जैसे रुकती रही पीर को लख कर
अधजल गगरी जैसे छलके, भावों के जो चित्र उकेरे
 
बन कर बाढ़ उमड़ती आईं मन में हर पल नई व्यथायें
कैसी हुई त्रासदी बैठो पास तनिकतुमको बतलायें
 
आंखों में आँजे थे सोचा हो लेंगे ये सपन सुनहरे
पर फूलों के सीने पर ही लगते हैं शूलों के पहरे
मणियों की अभिलाषा लेकर मथा झील के सोये जल को
उतने कंकर मिले अधिक हम डूबे जितना जाकर गहरे
 
उगी कंठ से लौटा दीं पर घाटी ने हर बार सदायें
कैसी हुई त्रासदी बैठो पास तनिक, तुमको बतलायें
 
बहुत पुकारा मिला न कोई पथ पर साथ निभाने वाला
आगे या पीछे रह कर ही चला साथ में साया काला
अपना था प्रतिबिम्ब हौसला देने वाला शून्य विजन में
वरना हर पनघट ने सौंपा, हमको केवल रीता प्याला
 
पास बुलाती हैं अब फ़ोर से बचपन वाली चित्रकथायें
कैसी हुई त्रासदी बैठो पास तनिक, तुमको बतलायें

 

Friday, August 9, 2013

आओ फिर कवितायें जी लें


 
आओ फिर कवितायें जी लें
 
पीड़ा धुंध अँधेरा काँटे
पांव पांव में पड़ी विवाई
मेरी पीड़ा तेरी पीड़ा
सबकी पीड़ा है दुखदाई
आईने में अपने सँग सँग
तनिक दूसरों को भी देखें
और देख कर उनके आँसू
अपनी आहें मुँह में सी लें
 
आओ फिर कवितायें जी लें
 
संबोधन से परिवर्तित कब
होते कहो अर्थ भावों के
ढूँढ़ें हम वे शब्द करें जो
प्रतिनिध्त्व बस अनुरागों के
रचें शब्द वे नये बसी हो
जिनमें वासुधैव की खुश्बू
अपने घर ही नहीं,गांव भर
में जाकर टाँकें  कंदीलें
 
आओ फ़िर कवितायें जी लें
 
चुटकी भर या मुट्ठी भर ही
तो है पास समय की पूँजी
करें खर्च यह तनिक जतन से
प्राप्त नहीं होगी फिर दूजी
ध्वंसों के बिखरावों से हम
निर्मित करें नीड़ नूतन ही
नीलकंठ के अनुयायी हो
बरसा हुआ हलाहल पी लें
 
आओ फिर कवितायें जी लें.