Friday, December 14, 2007

नहाते हुए चाँदनी

प्रासाद के आंगनों में खिली, फूल सी खिलखिलाते हुए चाँदनी
रात की खिड़कियों पे थिरकती रही, दीप सी झिलमिलाते हुए चाँदनी
कल्पना की सुचिर वीथियों में मगर, एक ही आस है, एक ही प्यास है
आपकी देह की रंगतों से धुले, पूर्णिमा में नहाते हुए चाँदनी

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भाव आते नहीं चाँदनी रात में, गीत कैसे लिखूँ तुम कहो प्यार के
एक हल्की सी नाज़ुक सी पागल छुअन का हुआ धमनियों में जो संचार के
उंगलियां काँपती हैं उठाते कलम, शब्द के चित्र बनते नहीं पॄष्ठ पर
कोशिशें करते करते थका भोर से, राग सँवरे नहीं वीन के तार पे

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Wednesday, December 12, 2007

कोई अपना यहाँ

अरसे के बाद भारत आना हुआ और महानगर के चौराहों के बीच अपनेपन की तलाश भटकती रही. कुछ सोत्र बँधते रहे और दिलासे की डोर को मज़बूत करते रहे. सन्नाटे की आदत ने शोर को असह्य बनाने की पूरी कोशिश तो की परन्तु अपनेपन के स्पर्श ने उसे असफ़ल ही रहने दिया. ऐसे ही क्षणों में कुछ पंक्तियों का सॄजन हुआ

शोर सीसा है कानों में पिघला हुआ
और गुब्बार बन कर उमड़ता धुंआ
पंक्तियों में ववंडर खड़े धूल के
फिर भी संतोष है कुछ है अपना यहाँ

इस तरफ़ हार्न है, उस तरफ़ चिल्ल-पौं
चीखती सी लगे है हवा बह रही
राह पर धड़धड़ाते हुए इक धमक
शांति दुश्वार है बस यही कह रही
वाहनों में भयंकर है स्पर्धा लगी
किसकी आवाज़ किससे अधिक तेज है
चीखते से सभी आज गतिमान हैं
और सहमी हुई राह चुप हो खड़ी

और विश्राम का पल रुका जो अगर
शोर गुल की बरसती है भीषण अगन
चिपचिपहट गले से लिपटने लगे
फिर भी संतोष है कोई अपना यहाँ

एक चौराहे पर आ खड़ी हो गई
राह चलते हुए, इक भटकती हुई
ज़िन्दगी ले कटोरा खड़ी हाथ में
अर्धविकसित कली सी चटकती हुई
उम्र के पाँव उठने से पहले गिरे
लड़्खड़ाते हुए ठोकरों को पकड़
एक अँगड़ाई झर कर गिरे बँह से
इससे पहले रखी मॄत्यु ने वह जकड़

थाम सावन की उंगली चला तो सही
राह में किन्तु लगता रुका है मदन
कोई सन्देह कोई शिकायत नहीं
क्योंकि संतोष है कोई अपना यहाँ

शर्त थी पार्थ आरूढ़ रथ पर रहे
थाम वल्गाओं को सारथी दे दिशा
जय कुरुक्षेत्र में सत्य की बस रहे
चीर कर अग्निबाणों से पावस निशा
किन्तु वल्गाओं को छोड़ प्रासाद में
सारथी आज सिंहासनों पर मगन
और परछाईयों में घिरे शून्य की
छटपटाते नयन में पले सब सपन

अपना अस्तित्व कर होम जीते हुए
धैर्य की रात दिन दे परीक्षा रहे
फिर भी उम्मीद की इक किरन शेष है
हमको संतोष है कोई अपना यहाँ

चाँदनी हर जगह पर बराबर बँटी
किन्तु इस ओर की बात ही और है
साथ अपनत्व की ले मधुरता मिले
पूर्ण ब्रह्मांड में बस यही ठौर है
जिस जगह पर अपरिचय कपूरी बने
और सम्बन्ध निखरें धुले दूध से
बस यही एक प्रांगण जहां हर घड़ी
यामिनी बात करती मिले धूप से

रोज आशायें हो कर रहें बलवती
फूल झरते रहें और कलियँ खिलें
हो अभावों के साये घिरी वाटिका
किन्तु संतोष है, कोई अपना यहाँ

Wednesday, December 5, 2007

क्या संबोधन दोगे

कई बार ऐसा होता है कि कोई समाचार या घटना सहसा ही कुछ न कुछ लिखवा देती है और ऐसी परिस्थितिजन्य रचनायें क्या स्थान पाती हैं यह सुनिश्चित नहीं होता. ऐसे ही एक कहानी से प्रेरित यह रचना स्वत: ही शब्दों में ढली है जिसे बाँट रहा हूँ

कोई नीलकंठ कहलाता एक बार ही बस विष पीकर
मिला न हमको कभी नाम कुछ, हम विष नित्य पिया करते हैं

वचनामॄत किसको कहते हैं, हमने कभी नहीं ये जाना
जो भी शब्द सुना उसमें ही घुला हुआ होता है ताना
कुछ उलाहने, कुछ शिकायतें और साथ कुछ दोषारोपण
मंथन से मिलता है केवल एक हलाहल हमने माना

हमने अभिमंत्रित जल कहकर किया आचमन हर उस द्रव का
जो हमको जाने अनजाने चेहरे नित्य दिया करते हैं

विष उपेक्षा वाला हर दिन संध्या भोर दुपहरी पीते
और अपैरिचय वाले विष में लिसी हुई सांसों को जीते
एकाकीपन के विष से हम धड़कन धड़कन भरे हुए हैं
और किया करते हैं लमहे लम्हे उसके शतघट रीते

जो अमॄत पीकर जीते हैं, पूज्य देवता वे कहलाते
हमको क्या संबोधन दोगे, हम पी ज़हर जिया करते हैं

सुकरातों में, मीराओं में, तुमने सदा हमीं को पाया
हमीं परीक्षित थे, हमने ही सहज समर्पण को अपनाया
हम संतुष्ट रहे हैं बिंधकर गहन अभावों के विषधर से
कभी आकलन किया नहीं है क्या खोया है क्या क्या पाया

हमें विदित है हम चंदन हैं विष तो मिला घुटी में हमको
गंध-उदय की खातिर ही तो हम हर जन्म जिया करते हैं

Saturday, December 1, 2007

प्रगति पंथ पर

पिछले दिनों भारत यात्राअ के दौरान ऐसा भी हुआ कि २ दिन तक दिल्ली की जल-व्यवस्था ठप्प हो गई. नहाने की बात तो छोड़िये, पीने के लिये भी पानी आधी दिल्ली से नदारद था. साथ ही साथ बिजली भी आँख मिचौनी खेलने पर उतारू थी. ऐसे मौके पर अचानक एक पत्रकार की आत्मा
कुछ पल के लिये भटकते हुए हमारे पास आ गई और उसने जो लिखवाया वह बिना किसी संशोधन के प्रस्तुत है. कॄपया इसे गंभीरता से न लें

दिल्ली की सत्ता अगस्त्य बन
निगल गई सारी धारायें
और निवेदन ठुकरा देती
है बेचारे भागीरथ के
जमना एक रोज उमड़ी थी
द्वापर में, ये कभी सुना था
लेकिन आज छुपी है वह भी
नीचे रेती की तलहट के

ताल वावड़ी कुँए सूखे
हर राही हैरान खड़ा है
और देखता केवल नारे-
प्रगति पंथ पर देश बढ़ा है

इन्द्र देव के वज़्र अस्त्र में
सिमट गई बिजली भी जाकर
निगल गये वंशज सूरज के
तम की सत्ता के सौदागर
ज्योति पुंज की अथक साधना
ध्रुव के कोई काम न आई
लगता है नचिकेता ने भी
चुप रहने की कसम उठाई

वो दीपक भी कहीम सो गया
जोकि तिमिर से सदा लद़्आ है
इस सबसे क्या, उधर देख लो
प्रगति शिखर पर देश चढ़ा है

उमर कटोरा लिये हाथ में
खड़ी हुई है चौराहों पर
दरवेशी जितने थे चल्ते
सब ही आज अलग राहों पर
इधर बंद है, उधर दंभ है
सबकी अपनी अपनी सत्ता
और बेचारा आम आदमी
बना हुआ त्रेपनवां पत्ता

हर आशा का फूल, खिले बिन
उपवन मेम चुपचाप झड़ा है
लेकिन असली बात यही है
प्रगति पंथ पर देश बढ़ा है