Wednesday, December 5, 2007

क्या संबोधन दोगे

कई बार ऐसा होता है कि कोई समाचार या घटना सहसा ही कुछ न कुछ लिखवा देती है और ऐसी परिस्थितिजन्य रचनायें क्या स्थान पाती हैं यह सुनिश्चित नहीं होता. ऐसे ही एक कहानी से प्रेरित यह रचना स्वत: ही शब्दों में ढली है जिसे बाँट रहा हूँ

कोई नीलकंठ कहलाता एक बार ही बस विष पीकर
मिला न हमको कभी नाम कुछ, हम विष नित्य पिया करते हैं

वचनामॄत किसको कहते हैं, हमने कभी नहीं ये जाना
जो भी शब्द सुना उसमें ही घुला हुआ होता है ताना
कुछ उलाहने, कुछ शिकायतें और साथ कुछ दोषारोपण
मंथन से मिलता है केवल एक हलाहल हमने माना

हमने अभिमंत्रित जल कहकर किया आचमन हर उस द्रव का
जो हमको जाने अनजाने चेहरे नित्य दिया करते हैं

विष उपेक्षा वाला हर दिन संध्या भोर दुपहरी पीते
और अपैरिचय वाले विष में लिसी हुई सांसों को जीते
एकाकीपन के विष से हम धड़कन धड़कन भरे हुए हैं
और किया करते हैं लमहे लम्हे उसके शतघट रीते

जो अमॄत पीकर जीते हैं, पूज्य देवता वे कहलाते
हमको क्या संबोधन दोगे, हम पी ज़हर जिया करते हैं

सुकरातों में, मीराओं में, तुमने सदा हमीं को पाया
हमीं परीक्षित थे, हमने ही सहज समर्पण को अपनाया
हम संतुष्ट रहे हैं बिंधकर गहन अभावों के विषधर से
कभी आकलन किया नहीं है क्या खोया है क्या क्या पाया

हमें विदित है हम चंदन हैं विष तो मिला घुटी में हमको
गंध-उदय की खातिर ही तो हम हर जन्म जिया करते हैं

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