Sunday, July 30, 2017

कुछ पुराने पेड़

कुछ पुराने पेड़ बाकी है अभी उस गांव में

हो गया जब एक दिन सहसा मेरा यह मन अकेला

कोई बीता पल लगा देने मुझे उस  पार हेला

दूर छूटे चिह्न पग के फूल बन खिलने लगे तो

सो गये थे वर्ष बीते एक पल को फिर जगे तो

मन हुआ आतुर बुलाऊँ पास मैं फ़िर वो दुपहरी

जो कटी मन्दिर उगे कुछ पीपलों की चाँव में

आ चुका है वक्त चाहे दूर फिर भी आस बोले

कुछ पुराने पेड़ हों शायद अभी उस गांव में

 

वह जहाँ कंचे ढुलक हँसते गली के मोड़ पर थे

वह जहाँ उड़ती पतंगें थीं हवा में होड़ कर के

गिल्लियाँ उछ्ला करीं हर दिन जहाँ पर सांझ ढलते

और उजड़े मन्दिरों में भी जहाँ थे दीप जलते

वह जहाँ मुन्डेर पर उगती रही थी पन्चमी आ

पाहुने बन कर उतरते पंछियों  की कांव में

चाहता मन तय करे फ़िर सिन्धु की गहराईयों को

कुछ पुराने पेड़ बाकी हों अभी उस गांव में

 

पेड़ वे जिनके तले चौपाल लग जाती निरन्तर

और फिर दरवेश के किस्से निखरते थे संवर कर

चंग पर आल्हा बजाता एक रसिया मग्न होकर

दूसरा था सुर मिलाता राग में आवाज़ बो कर

और वे पगडंडियां कच्ची जिन्हें पग चूमते थे

दौड़ते नजरें बचा कर हार पी कर दाँव में

शेष है संभावना कुछ तो रहा हो बिना बदले

कुछ पुराने पेड़ हों शायद अभी उस गांव में

 

वृक्ष जिनकी छांह  थी ममता भरे आँचल सरीखी

वृक्ष जिनके बाजुओं से बचपनों ने बात सीखी

वे कि बदले वक्त की परछाई से बदले नहीं थे

और जिनको कर रखें सीमित,कहीं गमले नहीं थे

वे कि जिनकी थपकियाँ उमड़ी हुई हर पीर हरती

ज़िंदगी सान्निध्य में जिनके सदा ही थी संवारती

है समाहित गंध जिनकी धड़कनों, हर सां स में

हाँ  पुराने पेड़ शाश्वत ही रहेंगे गाँव मब

वे पुराने पेड़ हर युग में रहेंगे गांव में

 

 

 

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