Wednesday, August 29, 2007

समीर भाई- यह बरस भी शुभ हो

लिखूँ बधाई और साथ में केक आपको भेज रहा हूँ
ताकि बाँट कर सबसे खायें, और शिकायत कोई करे न
सबसे छुप कर वर्ष गाँठ जो प्रणय दिवस की मना रहे हो
शायद सोचा तुम्हें तकाजा मिष्ठानों का कोई करे न










इतिहासों में लिखा हुआ है स्वर्ण- पत्र पर
जब समीर की पूर्ण हुई थी सतत साधना
यज्ञभूमि उसकी स्मॄतियों से महक रही है
यदों में खो, पुलक र्ही है अभी भावना
यह सुरभित पल बरस बरस हों और घनेरे
जहाँ स्पर्श हो, बहीं खिल उठे पुष्प-वाटिका
दुहराता है आज पुन: इस पावल दिन पर
पोर पोर मेरे मन का बस यही कामना

Wednesday, August 22, 2007

जंतर-मंतर: अपनी किस्मत बदलवा लें

हुआ यूँ कि कान्फ़्रेंस से वापिस आकर काम पर पहुँचते ही पहला प्रश्न हमारी ओर उछलता हुआ आया- कितना जीते कितना हारे ?

क्योंकि आफ़िस में सभी को पता था कि हमारी कान्फ़्रेंस लास वेगास में थी तो यह प्रश्न स्वाभिविक ही था. बड़े सकुचाते सकुचाते हमने उत्तर दिया कि हमें तो वहाँ कैसीनो जाने का समय ही नहीं मिला तो यकायक किसी को हमारी बात पर विश्वास नहीं हुआ. अब कैसे समझाते कि सुबह सात बजे से शाम छह बजे तक कान्फ़्रेंस के सेशन्स और उसके बाद साढ़े छह बजे से दस बजे तक की डिनर मीटिंग्स ने दिन के खाते में इतना समय छोड़ा ही नहीं कि क्रेप, रालेट , ब्लैकजैक या स्लाट्स पर अपनी किस्मत आजमाते.




घर वापिस आकर टीवी आन किया और फिर अपनी अगली कान्फ़्रेंस की रूपरेखा बनाने लगे कि सामने ज़ी टीवी पर आते हुए विज्ञापन ने हमें झकझोर दिया- हे मूर्ख, अपनी किस्मत बदल. फ़ौरन बाबा महाराज को फोने कर और देख गारंटी के साथ सात दिनों में कैसे तकदीर पलटती है हमारे ज्ञान चक्षु खुल गये और निश्चय कर लिया कि लास वेगास जाने से पहले अपनी किस्मत बदलवा लें . तो साहब






हम पे विज्ञापनों का हुआ यूँ असर
भाग्य की रेख को हम बदलने चले

पीर साहब को सत्रह किये फोन फिर
वेवसाइट पे बाबा की लाग इन किया
भेजी ईमेल पंडितजी महाराज को
पिर जलाया दिया, ज्योतिषी का दिया
स्वामीजी के दिये जंत्र बाँधे हुए
मंत्र पढ़ते लगे हर घड़ी रात दिन
और जैसा कहा एक सौ आठ ने
हमने रातें बिताईं सितारों को गिन

अपनी डायट से हमने बचाया बटर
सींचते हम रहे दीप जितने जले

एक ब्रजधाम के, एक थे गोकुली
एक बरसाने वाले पुजारी मिले
उनके वचनामॄतों को पिया घोलकर
जोड़ कर अपनी आशाओं के सिलसिले
ब्राह्मणों को दिये भोज, की परिक्रमा
नित्य श्वलिंग पर जल चढ़ाते रहे
हाथ में एक माला पकड़ राम का
नाम हर सांस में गुनगुनाते रहे

सूर्य वन्दन किया नित्य ही भोर को
करते स्तुतियां रहे, रोज संध्या ढले

कुंभकर्णी मगर नींद सोया रहा
भाग्य का लेख जो था हमारा लिखा
बीते दिन मास सप्ताह पल पल सभी
किन्तु बदलाव हमको न कोई दिखा
कोष संचित गंवा कर, विदित हो गया
ये सभी स्वप्न विक्रय की दूकान हैं
उतना फ़ंसता रहा चंगुलों में वही
जो हुआ जितना ज्यादा परेशान है

और फिर सत्य ये भी पता चल गया
है अँधेरा सदा दीपकों के तले.

Thursday, August 9, 2007

हाय रसोई और हम

हुआ यों कि श्रीमतीजी ने एकदम एलान कर दिया कि कुछ दिनों के लिये वे हमसे छुटकारा पाना चाहती हैं, इसलिये उन्होने अपनी टिकट बुक करा ली और तीसरे दिन ही प्रस्थान कर दिया अपने मायके के लिये. पहले तो हमने सोचा कि चलो अच्छा हुआ. कुछ दिन तक हम सारे चिट्ठे ध्यान देकर भली भांति पढ़ेंगे और समझने की ईमानदार कोशिश भी करेंगे. एक लिस्ट भी बना ली जिसमें सीधे साधे चिट्ठे जैसे उड़नतश्तरी, फ़ुरसतिया और दिल के दर्पण या दिल के दर्म्याँ को कोई जगह नहीं दी. सोचा उन चिट्ठों को पढ़ना भी क्या पढ़ना जो सीधी बात करते हैं.

खैर, पहले दिन ही जैसे यह सोचा कि खाना पीना निपटा कर चिट्ठे पढ़ेंगे, सारा प्रोग्राम धरा का धरा रह गया. चिट्ठे पढ़ पाना तो दूर, कम्प्यूटर तक पहुँचने की नौबत ही नहीं आई. रसोई से बाहर निकल पाना असम्भव हो गया. सारी कोशिशें बस यों सिमट कर रह गईं :-




तुमने कहा चार दिन, लेकिन छह हफ़्ते का लिखा फ़साना
सच कहता हूँ मीत, तुम्हारा महंगा पड़ा मायके जाना

कहां कढ़ाई, कलछी, चम्मच,देग, पतीला कहां कटोरी
नमक मिर्च हल्दी अजवायन, कहां छुपी है हींग निगोड़ी
कांटा छुरी, प्लेटें प्याले, सासपेन इक ढक्कन वाला
कुछ भी हमको मिल न सका है, हर इक चीज छुपा कर छोड़ी

सारी कोशिश ऐसी जैसे खल्लड़ से मूसल टकराना
सच कहता हूँ मीत तुम्हारा महंगा पड़ा मायके जाना

आटा सूजी, मैदा, बेसन नहीं मिले, न दाल चने की
हमने सोचा बिना तुम्हारे यहाँ चैन की खूब छनेगी
मिल न सकी है लौंग, न काली मिर्च, छोंकने को न जीरा
सोड़ा दिखता नहीं कहीं भी, जाने कैसे दाल गलेगी

लगा हुआ हूँ आज सुबह से, अब तक बना नहीं है खाना
सच कहता हूँ मीत, तुम्हारा महंगा पड़ा मायके जाना

मेथी, केसर,काजू,किशमिश, कहीं छुपे पिस्ते बदाम भी
पिछले महीने रखी बना जो, मिली नहीं वो सौंठ आम की
ढूँढ़ छुहारे और मखाने थका , न दिखती कहीं चिरौंजी
जिनके परस बिना रह जाती खीर किसी भी नहीं काम की

सारी कैबिनेट उलटा दीं, मिला न चाय वाला छाना
सच कहता हूँ मीत, तुम्हारा महंगा पड़ा मायके जाना

आज सुबह जब उठ कर आया, काफ़ी, दूध, चाय सब गायब
ये साम्राज्य तुम्हारा, इसको किचन कहूँ या कहूँ अजायब
कैसे आन करूँ चूल्हे को, कैसे माइक्रोवेव चलाऊँ
तुम थीं कल तक ताजदार, मैं बन कर रहा तुम्हारा नायब

कैलेन्डर की तस्वीरों से, सूजी का हलवा दे ताना
सच कहता हूँ मीत, तुम्हारा महंगा पड़ा मायके जाना

आलू, बैंगन, गोभी, लौकी, फ़ली सेम की और ग्वार की
सब हो गये अजनबी, टेबिल पर बोतल है बस अचार की
कड़वा रहा करेला, सीजे नहीं कुन्दरू, मूली गाजर
दाल मूँग की जिसे उबाला, आतुर है घी के बघार की

नानी के संग, आज बताऊँ याद आ रहे मुझको नाना
सच कहता हूँ मीत, तुम्हारा महंगा पड़ा मायके जाना

डोसा, इडली, बड़ा, रसम के साथ याद आती है सांभर
बड़ा-पाव, उत्तपम, खांडवी, पूरन-पोली, वाड़ी -भाकर
बाटी, दाल, चूरमा, गट्टे, छोले और तंदूरी रोटी
मुँह में घुलते हुए याद बन, चटनी संग उज्जैनी पापड़

संभव नहीं एक पल को भी, आँखों से इनकी छवि जाना
सच कहता हूँ मीत, तुम्हारा महंगा पड़ा मायके जाना

पीज़ा हट के पीज़ा में अब स्वाद नहीं कुछ आ पाता है
बर्गर में लगता है मुझको, भूसा सिर्फ़ भरा जाता है
चाट-पापड़ी, और कचौड़ी, स्वादहीन बिन परस तुम्हारे
और समोसा बहुत बुलाया, लेकिन पास नहीं आता है

संदेसा पाकर, उड़ान ले अगली जल्दी वापिस आना
सच कहता हूँ मीत तुम्हारा महंगा पड़ा मायके जाना

रतलामी सब सेव खो गये, मिली न भुजिया बीकानेरी
दालमोठ के पैकेट गायब, सूखे पेठे और गँड़ेरी
आलू के लच्छे या चिवड़ा गुड़धानी न भुने चने हैं
भूल भुलैया बनी रसोई, पेट बजाता है रणभेरी

तुम आओ तो लिखा नाम है जिस मेरा, पाऊं खाना
सच कहता हूँ मीत, तुम्हारा महंगा पड़ा मायके जाना

Friday, August 3, 2007

ये गीत लिख रहे हैं

तुम्हारी नजरों को देख कर हम, हुज़ूर ये गीत लिख रहे हैं
न जाने कैसा चढ़ा है हम पर सुरूर, ये गीत लिख रहे हैं

वे और होंगे जिन्हें ये दावा है वे सुखनवर हैं, वे हैं शायर
हमें तो इस पर नहीं जरा भी गुरूर, ये गीत लिख रहे हैं

कहां है मुमकिन जुबां को खोलें या कोई इज़हार कर सकें हम
ख़ता हमारी है इतनी केवल जरूर, ये गीत लिख रहे हैं

तुम्हारी महफ़िल से अजनबी जो, शनासा थी कल तलक हमारी
उस तिस्नगी के खयाल से भी, हो दूर ये गीत लिख रहे हैं

उठाओ तुम भी जनाब उंगली, जो लिख रहे हो वो गात कब है ?
नहीं गज़ल की है बंदिशों का शऊर, ये गीत लिख रहे हैं

कैसे बोझ उठायेंगे

कैसे होंगे गीत आपके अधरों पर जो आयेंगे
जिन्हें आप सरगम के गहने पहना पहना गायेंगे

मेरे शब्दों की किस्मत में लिखा हुआ ठोकर खाना
आज संभल कर उठे किन्तु ये कल फिर से गिर जायेंगे

छंदों की उजड़ी बस्ती में भावों का ये चरवाहा
अक्षर हैं भटकी भेड़ों से, कैसे फिर जुड़ पायेंगे

भावों की गठरी के ॠण का मूल अभी भी बाकी है
और ब्याज पर ब्याज चढ़ रहा कैसे इसे चुकायेंगे

नीलामी सुधि की सड़कों पर, लेकिन ग्राहक कोई नहीं
मुफ़्त तमाशे के दर्शक तो अनगिनती मिल जायेंगे