Sunday, June 9, 2013

प्राण ही शब्दित हुये हैं

व्याकरण से बिंध अधर के
रह गये जब स्वर बिखर के
प्राण ही शब्दित हुये हैं उस घड़ी इक गीतिका में
 
उंगलियों के सामने आ टिक रहें जब भावनायें
छट्पटायें पंथ में गिर ठीकरों सी कामनायें
व्यूह में आक्षेप के तीखे शरों की घिर झड़ी में
दग्ध पायल सोचती हों किस तरह से झनझनायें
 
गुम दिशा में हों सवेरे
खिलखिलाते हों अँधेरे
प्राण ही शब्दित हुये हैं उस घड़ी इक दीपिका में
 
अर्थ के सन्दर्भ भी जब अर्थ खोने लग पड़ें हों
प्रश्न के उत्तर स्वयं ही प्रश्न बन बन कर खड़े हों
नाम अजनबियत लिखे जब परिचयों के पृष्ठ पर आ
यामिनी के स्वप्न जब टूटे सितारों से झड़े हों
 
रात की गहराई पी कर
आस के अवशेष सी कर
प्राण ही शब्दित हुये हैं उस घड़ी आ चन्द्रिका में
 
बोध बुनने लग पड़े जब जाल खुद दिन रात छल के
बन रहें अवरोध पथ के अनकिये अपराध कल के
तर-बतर करती रहे नैराश्य की बदली घिरे बिन
और दिन का दीप रह ले रात के ही द्वार जल के
 
चीरने निस्तब्धता को
छाँटने अस्पष्टता को
प्राण ही शब्दित हुये हैं उस घड़ी आ बोधिका में

Sunday, June 2, 2013

याद आई आज मुझको

याद आई आज मुझको सूचना के बिन तुम्हारी
 
चेतना के तार की झंकार पर तन्द्रा बिठाकर
आस की अनुभूतियों के केन्द्र पर निद्रा बिछाकर
नैन के आवास की दीवार को रंगीन कर के
डाल कर सम्मोहिनी,सुधियाँ सभी मेरी  भुलाकर
 
व्याकरण अनुभूतियों की इक नई रच कर सँवारी
याद आई आज मुझको सूचना के बिन तुम्हारी
 
डाउनटाउन सांझ को जाते हुये ज्यों ट्रेन खाली
में किसी भी सीट को सुविधाजनक कर बैठ जायें
ठीक वैसे कक्ष से मन के सभी का निष्क्रमण कर
थी तुम्हारी याद बन कर आ घिरी श्यामल घटायें
 
रह गई थी शेष जो परछाईं वो भी थी बुहारी
याद आई आज मुझको सूचना के बिन तुम्हारी
 
पार कर स्पैम फ़िल्टर आ गईं ज्य जंक मेलें
कोई अंकुश जिस तरह उनको नियंत्रित कर न पाये
उस तरह ही याद के दीपक तुम्हारे,बातियों बिन
बन गये दीपावली के दीप रह रह झिलमिलाये
 
खींच कर हर कोण पर बस एक ही आकृति तुम्हारी
याद आई आज मुझको सूचना के बिन तुम्हारी