Sunday, July 29, 2007

समीर लालजी -जन्मदिन शुभ हो

अभी अभी नाटक देख कर घर वापिस आया तो देखा खिड़की की सिल् पर बैठी एक गौरेय्या गुनगुना रही थी. उसका गाना सुनते सुनते सहसा ही याद आया कि कल २९ जुलाई को एक जन्मदिवस भी मनाना है.सोचा कि कोई फ़िल्मी गाना तलाश कर के भेज दूँ पर बहुत देर तक ढूँढ़ने के बाद भी कोई ऐसा गाना नहीं मिला जिसे भेज कर औपचारिकता निभा दी जाये ( हालांकि जिसका जन्मदिन है उससे औपचारिकता का रिश्ता पूरे ८०० किलोमीटर तक नहीं है )) अब सीधी साधी भाषा में केवल जन्मदिन शुभ हो या सालगिरह मुबारक या Happy Birthday to you कह कर पूरा कर देना अपने बस की बात नहीं है. गाना आता नहीं. कहानी सुना नहीं सकते. लेख हम उनके लिये क्या लिखें जो लेख सोते बिछाते हैं.

खैर जो भाव दिल में हैं वे सामने हैं

आज हर्ष से पूरित क्षण में केवल एक करूँ अभिलाषा
उड़नतश्तरी और नई ऊँचाई छू ले इतनी आशा

शत सहस्त्र जीवन के दिन हों,लिखना बातें हैं बेमानी
मैं कहता हूँ आप लिखें नित जीवन में इक नई कहानी
जब भी कलम उंगलियों में आये या जब कुंजीपट खड़के
लिखें आप जो ऐसा हो वह, पढ़ हर पाठक का दिल धड़के

वह पनघट बन जायें जिससे जाये न कोई भी प्यासा
और नई ऊँचाई लेखन की छू लें बस इतनी आशा

संवेदन घुल कर शब्दों में अर्थ नये दे जिसे लिखो तुम
अंधियारे की गलियों में बस ज्योतिपुंज का रूप्दिखो तुम
नभ के फूल सदा द्वारे पर वन्दनवार बनें खिल जायें
वॄन्द मंजरी के गुच्छे आ लेखन का सौरभ महकायें

उत्तर पाले सदा उठे जो मन में कोई भी जिज्ञासा
उड़नतश्तरी और नई ऊँचाई छू ले ये है आशा.

समीर भाई-- ये कामना आपके लिये

Friday, July 27, 2007

तलाश

घूमता मैं रहा भोर से सांझ तक, शब्द के रिक्त प्याले लिये हाथ में
कोई ऐसा मिला ही नहीं राह में, भाव लेकर चले जो मेरे साथ में
अजनबी राह की भीड़ में ढूँढ़ता कोई खाका मिले जिससे पहचान हो
भूमिका बन सके फिर उपन्यास की, बात होकर शुरू बात ही बात में

Thursday, July 12, 2007

अब लिखने से कतराता हूँ

वैसे तो भाई साहब का आग्रह था कि कुछ लिखूँ और मैने सोचा कि उनका आग्रह मान लूँ. पर इस वक्त की जद्दोजहद के चलते जो लिखने कीकोशिश की तोअसफ़; ही रह गया.

बस यही कह सका कि


यह जो दौर चला है इसमें मोल न कुछ भी है भावों का
इसीलिये मैं लिखते लिखते अनायास ही रुक जाता हूँ

रह रह प्रश्न किया करते हैं शब्द, पॄष्ठ से उठा निगाहें
रोपे थे विरवे तुलसी के, कैसे हुईं कँटीली राहें
उलझी हुई गाँठ सी लगता सर्पीली हर इक पगडंडी
अवरोधों के फ़न फ़ैलाये बढ़ी हुईं झंझा की बाँहें

नहीं समय अब रहा वॄक्ष सा तन कर खड़े हुए रहने का
इसीलिये मैं हरी दूब जैसा, चरणों में झुक जाता हूँ

आक्षेपों के चक्रव्यूह में घिरे हुए हैं सारे चिन्तन
षड़यंत्रों से सांठ गांठ जिनकी, उनका होता अभिनन्दन
सॄजनात्मकता नये हाल में अपना अर्थ गंवाये जाती
दिखते हैं भुजंग ही केवल, जकड़ा हुआ इस कदर चंदन

रोज सुबह आशान्वित होता हूँ, शायद परिवर्तन होगा
और सांझ के होते होते धीरज खोकर चुक जाता हूँ

उठें उंगलियां आज उधर ही, जिधर जरा नजरें दौड़ाईं
अस्तित्वों पर प्रश्न चिन्ह हैं,ब्रह्मा,शिव या कॄष्ण कन्हाई
अपनी ही जड़ पर करने में लगे हुए आघात निरन्तर
और सोचते हैं इनकी ही हो न सकेगी जगत हँसाई

सधे मदारी की चालों से बँधे हुए लगता सब पुतले
जिनमें जुम्बिश कोई नहीं, मैं फ़टकारे चाबुक जाता हूँ

Friday, July 6, 2007

कल कहीं मन कबीरा भी हो कि न हो

लग रही सांझ ये नेह की आखिरी
कल को शायद सवेरा भी हो कि न हो
आज जी भर के आराम कर लेने दो
कल कहीं पर बसेरा भी हो कि न हो

मैने नापी हैं जो राह की दूरियां
उनके मीलों को अब तक गिना ही नहीं
मैने उपलब्धियां मान कर ही उन्हें
है सहेजा, निराशा जो मिलती रहीं

हर घड़ी एक दीपक जलाये रखा
कल को शायद अँधेरा भी हो कि न हो

मोड़ अनगिन मिले, मैं भटकता रहा
किन्तु संकल्प मन के न टूटे मेरे
मैं उठाता रहा हर कदम पर उन्हें
राह में ठोकरें खा के जो गिर पड़े

मैं लुटाता रहा अपना दिल इसलिये
कल को मौसम लुटेरा भी हो कि न हो

आस्था के दिये प्रज्ज्वलित तो किये
रोशनी से कभी जगमगाये नहीं
गीत लिखता रहा रोज ही मैं मगर
वह किसी ने कभी गुनगुनाये नहीं

इसलिये खाके मैं बुन रहा याद के
चित्र सुधि ने चितेरा भी हो कि न हो

जो धरोहर मिली है मुझे कोष में
धीरे धीरे उसे मैं गंवाता रहा
टूटती सांस के तार को छेड़ कर
स्वर अधूरे गले में सजाता रहा

कह रहा हूँ सभी साखिया आज मैं
कल कहीं मन कबीरा भी हो कि न हो