Monday, July 15, 2013

धरती के खुले पत्र पर

बादल ले बूँद की कलम
धरती के खुले पत्र पर
लिख रहा है हरित रंग से
प्रीत की नवीन इक कथा
 
ताप का प्रकोप बो गया
शुष्कियाँ हजार जो कभी
मरुथली हवायें छीन कर
ले गईं श्रंगार  जो सभी
रेत के ववंडरों में घुल
रह रहे जो स्वप्न आँख के
बुन रहीं थीं रश्मियां कुपित
जाल हर विहग की पाँख पे
 
कक्ष से समुद्र के निकल
पथ गगन का लेके आगया
धरती के खुले पत्र पर
यह लिखे, हरी है हर व्यथा
 
झुनझुनों से पत्र बज उठे
शाख लचलचाई नृत्य में
डबडबाये हो विभोर दृग
सत्य कृत्य देख कथ्य में
रच गईं क्षितिज पे अल्पना
गुनगुनाई देहरी मुदित
आस का खिला जो इक सुमन
हो गया सहस्र से गुणित
 
बादलों ने फ़िर लिखा उसे
शिंजिनी के पोर से छुआ
धरती के खुले पत्र पर
जो कभी कहीं लिखा ना था
 
सावनी मल्हार में घुली
भाद्रपद की आस्था सुलभ
डाकिये बना सन्देस ले
मोड़ पर खड़ा हुआ शरद
कामनाओं के नवीन चित्र
आईने में फ़िर सँवर गये
छन्द कालिदास के सभी
होंठ पर पुन: मुखर हुये
 
ले दिशाओं से उकेरता
धरती के खुले पत्र पर
चित्र वे सुहावने जो थे
कल्पनाओं में यदा कद
 
 
राकेश खंडेलवाल
५ जुलाई २०१३

Monday, July 8, 2013

फिर से धूप धरा पर उतरी

फिर से  धूप धरा पर उतरी
 
 
बादल का घूँघट उतार कर खोल गगन के वातायन को
फ़ेंक मेघ का काला कम्बल,तोड़ मौसमी अनुशासन को
तपन घड़ें में भर कर रख दी
फ़िर से धूप धरा पर उतरी
 
उफ़नी हुई नदी के गुस्से को थोड़ा थोड़ा सहला कर
वृक्ष विहीना गिरि के तन को सोनहरा इक शाल उढ़ा कर
हिम शिखरों की ओर ताकते हुये तनिक मन में अकुलाकर
छनी हवा से हो गई उजरी
फ़िर से धूप धरा पर उतरी
 
रँगते हुये प्रेमियों के मन में भावों की चित्रकथायें
देते हुये बुलावा अधरों को अब मंगल गीत सुनायें
और नयन में आगत को कर रजताभी नव स्वप्न सजायें
प्राची में लहरा कर चुनरी
फ़िर से धूप धरा पर उतरी
 
पावसान्तक और हिमान्तक होती सुखदा याद कराते
और ग्रीष्म में क्रुद्ध न होगी इतनी अधिक अगन बरसाते
अगर प्रकृति का करते आदर हम सब अपने शीश नवाते
सच्चाई की लेकर पुटरी
फ़िर से धूप धरा पर उतरी