Monday, September 22, 2008

फिर अधूरी रही, पूर्ण हो न सकी

हो दिशाहीन पथ में भटकती रही
पांव ने जो सफ़र की डगर थी चुनी

पॄष्ठ जितने भी थे पुस्तकों के खुले
दॄष्टि के चुम्बनों से परे रह गये
चाह कर शब्द पा न सके अस्मिता
धब्बे पन्नों पे केवल जड़े रह गये
जो पिघल कर ह्रदय ने किया व्यक्त था
अर्थ पा न सका शून्य में खो गया
और अहसास की चादरों पे बिछा
वक्त का एक पल मौन हो रो गया

फिर अधूरी रही, पूर्ण हो न सकी
ज़िन्दगी ने नई जो कहानी बुनी

जो बनाये गये चित्र थे पंथ का
रंग गहरा तन्कि कोई उनका न था
इसलिये वक्त यायावरी था सदा
मंज़िलों से परे, दोष उसका न था
किन्तु स्वीकार निर्णय गलत, कर सके
चेतना को हुआ ये गवारा नहीं
और जिस मोड़ पावस ठिठक कर रुकी
आज भी है खड़ी बस वहीं की वहीं

चाहतें चाहती इक दुशाला बुनें
किन्तु अब तक जरा भी रुई न धुनी

रीते घट पनघटों से उठा ले गई
आई आषाढ़ की एक काली घटा
पंथ भागीरथी का निगल ती रही
राह में एक उलझी हुई सी जटा
सोच में जो न संभव हुआ, वह हुआ
लक्ष्य बेध्जा नहीं पार्थ के तीर ने
रेत पर था लिखा सीपियों का पता
जो मिटा रख दिया सिन्धु के नीर ने

लौट कर आई हर एक ध्वनि-प्रतिध्वनि
हर दिशा बात करती रही अनसुनी

Thursday, September 4, 2008

जी हम भी कविता करते हैं

अभी पिछले सप्ताह एक कार्यक्रम के आयोजक के पास किसी कवि का सिफ़ारिशी पत्र देखा
जिसमें उन्हें काव्य पाठ हेतु बुलाने का आग्रह किया गया था. शब्दों के पीछे छुपे हुए असली
भाव जब हम्ने पढ़े तो यह असलियत सामने आई जिसे आपके साथ बाँट रहे हैं



मान्य महोदय हमें बुलायें सम्मेलन में हम भी कवि हैं
हर महफ़िल में जकर कविता खुले कंठ गाया करते हैं

हमने हर छुटकुला उठा कर अक्सर उसकी टाँगें तोड़ीं
और सभ्य भाषा की जितनी थीं सीमायें, सारी छोड़ी
पहले तो द्विअर्थी शब्दों से हम काम चला लेते थे
बातें साफ़ किन्तु अब कहते , शर्म हया की पूँछ मरोड़ी

हमने सरगम सीखी है वैशाखनन्दनों के गायन से
बड़े गर्व से बात सभी को हम यह बतलाया करते हैं

अभियंता हम, इसीलिये शब्दों से अटकलपच्ची करते
हम वकवास छाप कर अपनी कविता कह कर एंठा करते
देह यष्टि के गिरि श्रंगों को हमने विषय वस्तु माना है
केवल उनकी चर्चा अपनी तथाकथित कविता में करते

एक बार दें माईक हमको, फिर देखें हम हटें न पीछे
शब्द हमारे होठों से पतझर के पत्तों से झरते हैं

महाकवि हम, हम दिन में दस खंड-काव्य भी लिख सकते हैं
जो करते हैं वाह, वही तो अपने मित्र हुआ करते हैं
जो न बजा पाता है ताली, वो मूरख है अज्ञानी है
उसे काव्य की समझ नहीं ये साफ़ साफ़ हम कह सकते हैं

सारे आयोजक माने हैं हम सचमुच ही लौह-कवि हैं
इसीलिये आमंत्रित हमको करने में अक्सर डरते हैं

जो सम्मेलन बिना हमारे होता, उसमें जान न होती
हमको सुनकर सब हँसते हैं, बाकी को सुन जनता रोती
हुए हमारे जो अनुगामी, वे मंचों पर पूजे जाते
हम वसूलते संयोजक से, न आने की सदा फ़िरौती

नीरज, सोम, कुँअर, भारत हों, हसुं चाहे गुलज़ार, व्यास या
ये सब एक हमारी कविता के आगे पानी भरते हैं

हम दरबारी हैं तिकड़म से सारा काम कराते अपना
मौके पड़ते ही हर इक के आगे शीश झुकाते अपना
कुत्तों से सीखा है हमने पीछे फ़िरना पूँछ हिलाते
और गधे को भी हम अक्सर बाप बना लेते हैं अपना

भाषा की बैसाखी लेकर चलते हैं हम सीना ताने
जिस थाली में खाते हैं हम, छेद उसी में ही करते हैं

जी हम भी कविता करते हैं