Thursday, September 4, 2008

जी हम भी कविता करते हैं

अभी पिछले सप्ताह एक कार्यक्रम के आयोजक के पास किसी कवि का सिफ़ारिशी पत्र देखा
जिसमें उन्हें काव्य पाठ हेतु बुलाने का आग्रह किया गया था. शब्दों के पीछे छुपे हुए असली
भाव जब हम्ने पढ़े तो यह असलियत सामने आई जिसे आपके साथ बाँट रहे हैं



मान्य महोदय हमें बुलायें सम्मेलन में हम भी कवि हैं
हर महफ़िल में जकर कविता खुले कंठ गाया करते हैं

हमने हर छुटकुला उठा कर अक्सर उसकी टाँगें तोड़ीं
और सभ्य भाषा की जितनी थीं सीमायें, सारी छोड़ी
पहले तो द्विअर्थी शब्दों से हम काम चला लेते थे
बातें साफ़ किन्तु अब कहते , शर्म हया की पूँछ मरोड़ी

हमने सरगम सीखी है वैशाखनन्दनों के गायन से
बड़े गर्व से बात सभी को हम यह बतलाया करते हैं

अभियंता हम, इसीलिये शब्दों से अटकलपच्ची करते
हम वकवास छाप कर अपनी कविता कह कर एंठा करते
देह यष्टि के गिरि श्रंगों को हमने विषय वस्तु माना है
केवल उनकी चर्चा अपनी तथाकथित कविता में करते

एक बार दें माईक हमको, फिर देखें हम हटें न पीछे
शब्द हमारे होठों से पतझर के पत्तों से झरते हैं

महाकवि हम, हम दिन में दस खंड-काव्य भी लिख सकते हैं
जो करते हैं वाह, वही तो अपने मित्र हुआ करते हैं
जो न बजा पाता है ताली, वो मूरख है अज्ञानी है
उसे काव्य की समझ नहीं ये साफ़ साफ़ हम कह सकते हैं

सारे आयोजक माने हैं हम सचमुच ही लौह-कवि हैं
इसीलिये आमंत्रित हमको करने में अक्सर डरते हैं

जो सम्मेलन बिना हमारे होता, उसमें जान न होती
हमको सुनकर सब हँसते हैं, बाकी को सुन जनता रोती
हुए हमारे जो अनुगामी, वे मंचों पर पूजे जाते
हम वसूलते संयोजक से, न आने की सदा फ़िरौती

नीरज, सोम, कुँअर, भारत हों, हसुं चाहे गुलज़ार, व्यास या
ये सब एक हमारी कविता के आगे पानी भरते हैं

हम दरबारी हैं तिकड़म से सारा काम कराते अपना
मौके पड़ते ही हर इक के आगे शीश झुकाते अपना
कुत्तों से सीखा है हमने पीछे फ़िरना पूँछ हिलाते
और गधे को भी हम अक्सर बाप बना लेते हैं अपना

भाषा की बैसाखी लेकर चलते हैं हम सीना ताने
जिस थाली में खाते हैं हम, छेद उसी में ही करते हैं

जी हम भी कविता करते हैं

10 comments:

Udan Tashtari said...

हा हा!! न जाने किसकी वाट लगी है...कम से कम हम तो नहीं हैं, यह तय है. :)

५ दिन की लास वेगस और ग्रेन्ड केनियन की यात्रा के बाद आज ब्लॉगजगत में लौटा हूँ. मन प्रफुल्लित है और आपको पढ़ना सुखद. कल से नियमिल लेखन पठन का प्रयास करुँगा. सादर अभिवादन.

Manvinder said...

arre je kya kah rahe hai aap

रंजू भाटिया said...

:) अजब गजब है यह ..सिर्फ़ मुस्कारने के कुछ नही सूझ रहा है

साहित्यशिल्पी said...

आदरणीय राकेश जी,

आपका ने हास्य लिखने का तो केवल बहाना किया है, इन शब्दों के पीछे की गहरी पीडा समझी जा सकती है। सचमुच तिलमिलाहट होती है कविता और साहित्य का सत्यानाश करने वाले विदूषकों से...

***राजीव रंजन प्रसाद

seema gupta said...

भाषा की बैसाखी लेकर चलते हैं हम सीना ताने
जिस थाली में खाते हैं हम, छेद उसी में ही करते हैं
"ha ha ha ha wonderful mind blowing"

Regards

नीरज गोस्वामी said...

अभियंता हम, इसीलिये शब्दों से अटकलपच्ची करते
लगता है भाई मेरी बात ही लिखी है आपने....बहुत रोचक रचना...आप के अलग अंदाज को बखूबी प्रर्दशित करती हुई...बहुत आनंद आया इसे पढ़ कर.
नीरज

pallavi trivedi said...

महाकवि हम, हम दिन में दस खंड-काव्य भी लिख सकते हैं
जो करते हैं वाह, वही तो अपने मित्र हुआ करते हैं
जो न बजा पाता है ताली, वो मूरख है अज्ञानी है
उसे काव्य की समझ नहीं ये साफ़ साफ़ हम कह सकते हैं

kya baat hai...sateek aur mazedaar bhi!

शोभा said...

बहुत अच्छा लिखा है । सस्नहे

श्रद्धा जैन said...

Rakesh ji pata nahi aaj kiski kayamat aayi thi bechare ne patr likh diya maja aaya padh kar

jab koi sahitay ke saath majak karta hai waqayi gusaa aata hai

Satish Saxena said...

मज़ा आगया आपका यह नया रूप देखकर !
"हम दरबारी हैं तिकड़म से सारा काम कराते अपना
मौके पड़ते ही हर इक के आगे शीश झुकाते अपना
कुत्तों से सीखा है हमने पीछे फ़िरना पूँछ हिलाते
और गधे को भी हम अक्सर बाप बना लेते हैं अपना"
अक्सर आपको गीतकलश में पढता रहा हूँ, मगर आप जैसे संवेदनशील एवं सशक्त हस्ताक्षर का गुस्सा इन दरबारी कवियों पर जायज ही नही अत्यन्त आवश्यक है ! मैंने आपकी एक और नाराजी आधुनिक कविता के प्रति पढी थी ! हिन्दी भाषा का जो श्रृंगार आपने किया है , उसको बिगाड़ने का प्रयास करते यह विदूषक ....
मैं आपके इस अभियान में साथ हूँ...
सादर नमन