Friday, July 1, 2016

किरणें जिनके द्वार न आई


अर्घ्य चढ़ा कर मंत्र बोल कर सूरज चन्दा को आराधो
जितना चाहो इष्ट बनाकर सुबह शाम रजनी में साधो
भूलो नहीं, दीप ने देखी  नहीं कभी अपनी परछाई
सत्ता में वे कुटियां भी हैं किरणें जिनके द्वार न आई

खुली पलकने बुनी निरंतर एक प्रतीक्षा उजियारे की
रातें रही जगाती आशा उत्तर के चमके तारे की
​देते रहे दिलासे सपने पाहुन अँधियारा पल भर का
लेकिन रही  आस ही जलती एक बार फिर अंगारे सी

रही अपरिचित इन गलियो से प्राची की बिखरी अरुणाई
और यहीं पर है वे कुटियों किरणें जिनके द्वार न आई

युग बीते पर जीवन अब भी चला जहां पर घुटनो के बल
किरच तलक भी अभिलाषा की देती नहीं जहाँ आ सम्बल
जहा धरा नभ् सब लिपटे हैं घनी अमावस के साये में
जहां समय ने आकर बदला नहीं आज में, बीत गया कल

उन राहों पर प्रश्न सहमते उत्तर ने भी नजर चुराईं
शायद कोई बतला पाये क्यों कर किरणें द्वार न आई

उजियारे के अधिकारी हैं वे भी उतने, जितने तुम हम
दोषी तो हैं सूरज चन्दा, हारे देख तिमिर का दम ख़म
चलो उगाये नव वितान में एक नया सूरज हम मिलकर
ताकि रहे न शेष कही पर अंश मात्र भी छुप करके तम


नए पृष्ठ पर वक्त लिखे आ जहां न कल तक आई किरणें
उन द्वारों पर उतरी ऊषा ​लिय करे    पहली अंगड़ाई 

Wednesday, June 29, 2016

अचल रहे संकल्प, विकल्पों पर विचार का समय नहीं है


अचल रहे संकल्प, विकल्पों पर विचार का समय नहीं है 
हुई व्यवस्था ही प्रधान, जो करे व्यवस्था अभय नहीं है

अभय दान जो मांगा करते उन हाथों में शक्ति नहीं है
पाना है अधिकार अगर तो कमर बांध कर लड़ना होगा
कौन व्यवस्था का अनुयायी? केवल हम हैं या फिर तुम हो
अपना हर संकल्प हमीं को अपने आप बदलना होगा
मूक समर्थन कृत्य हुआ है केवल चारण का भाटों का
विद्रोहों के ज्वालमुखी को फिर से हमें जगाना होगा
रहे लुटाते सिद्धांतों पर और मानयताओं पर् अपना
सहज समर्पण कर दे ऐसा पास हमारे ह्रदय नहीं है

अपराधी है कौन दशा का ? जितने वे हैं उतने हम है
हमने ही तो दुत्कारा है मधुमासों को कहकर नीरस
यदि लौट रही स्वर की लहरें कंगूरों से टकरा टकरा
हम क्यों हो मौन ताकते हैं उनको फिर खाली हाथ विवश
अपनी सीमितता नजरों की अटकी है चौथ चन्द्रमा में
रह गयी प्रतीक्षा करती ही द्वारे पर खड़ी हुई चौदस
दुर्गमता से पथ की डरकर जो ्रहे नीड़ में छुपा हुआ
र्ग गंध चूमें आ उसको, ऐसी कोई वज़ह नहीं है

द्रोण अगर ठुकरा भी दे तो एकलव्य तुम खुद बन जाओ
तरकस भरा हुआ है मत का, चलो तीर अपने संधानो
बिना तुम्हारी स्वीकृति के अस्तित्व नहीं सुर का असुरों का
रही कसौटी पास तुम्हारे , अन्तर तुम खुद ही पहचानो
पर्वत, नदिया, वन उपवन सब गति के सन्मुख झुक जाते हैं
कोई बाधा नहीं अगर तुम निश्चय अपने मन में ठानो
सत्ताधारी हों निशुम्भ से या कि शुम्भ से या रावण से
बतलाता इतिहास राज कोई भी रहता अजय नहीं है.

Tuesday, June 28, 2016

चेतन का संक्रातिकाल है


कातर मन उठ! और थाम ले जो सन्मुख जलती मशाल है
भूल नहीं पल भर को भी यह चेतन का संक्रातिकाल है

गली व्यवस्था को उखाड़ना जड़ से है हाथों में तेरे
तेरा निश्चय ले आएगा परिवर्तन के नए सवेरे
हिले नहीं तेरा अंगदपग निष्ठां पूरी से जो रोपे
हो जाएंगे सभी तिरोहित तेरे पथ में घिरे अँधेरे

उत्तर दे! तेरी साँसों का जो तुझसे जलता सवाल है
भूल नहीं यह पल भर को भी चेतन का संक्रातिकाल है

जितनी चाहे। कर शिकायते  कुछ बदलाव नहीं आएगा
जब तक तू अपने निश्चय को फौलादी न कर पायेगा 
सावित्री के संकल्पों को यदि अपना आधार बना ले
क्या हस्ती भ्रष्टाचारी की,, स्वयं काल भी झुक जाएगा  

दुहरा देख तनिक मिलती इतिहासों में जिसकी मिसाल है
भूल नहीं पल भर को भे एयह चेतन का संक्रान्तिकाल है

जरासन्ध से शिशुपालों की सत्ता कितनी देर टिकी है
धुन्ध सूर्य की प्रखर रश्मियां, आखिर कितनी देर ढकी है
हो हताश मत, कर स्वतंत्र तू अपने चिन्तन को अनुरागी
तुझे विदित परिवर्तन की गति, रोके से भी नहीं रुकी है


रोक न उसको धधक रही जो अन्तर्मन में एक ज्वाल है
भूल नहीं पल भर को भी यह चेतन का संक्रान्तिकाल है