Wednesday, July 30, 2008

समीर लाल जी का जन्मदिन

पता नहीं कैसे १२२वीं पोस्ट की तलाश में भटकते हुए जहां समीरभाई की टिप्पणी का उपयोग होता, हम ऐसे भटके कि भूल गये कि आज यानी कि २९ जुलाई को सर्वप्रिय समीर लाल जी का जन्मदिन है.
दिन के पलों को उधेड़ कर बुनते हु्ये कब रात भी ढल गई पता ही नहीं चला. आज सुबह याद आया तो बिलम्ब से ही ही सही उन्हें जन्म दिवस की हार्दिक शुभकामनायें

सुखमय जन्मदिवस हो, हम सब नवल पुरातन हर्ष संजोयें
अभिनन्दन के भाव भेंट में भेज रहा स्वीकारो
भावी जीवन के सपनों की मूर्त्तिमान खुशियों से
विविध रूप में रँगा आपका वर्त्तमान सजता हो

Wednesday, July 23, 2008

पूजा की थाली तो सजती

पूजा की थाली तो सजती रहती है नित सांझ सकारे
लेकिन श्रद्धा बिना तुम्हारे आशीषों के नहीं जागती

रोली अक्षत फूल धूप का कितना भी अम्बार लगाऊँ
पंचम सुर में नाम तुम्हारा जितना भी चाहे चिल्लाऊँ
एक हाथ में दीप उठाकर दूजे से घन्टी झन्कारूँ
मस्तक पर चन्दन के टीके विविध रूप में नित्य सजाऊँ

किन्तु तुम्हारी कॄपा न हो तो ये सब आडम्बर ही तो है
बिना तुम्हारे इच्छा के विधि अपना लेखा नहीं बाँचती

जो भ्रम है मुझको, मेरा है! मुझे विदित वह कब मेरा है
एक तुम्हारी माया के सम्मोहन ने ही तो घेरा है
जो है वो है नहीं और जो नहीं वही तो सचमुच ही है
यह मंज़िल है कहाँ ? महज दो पल की ही तो ये डेरा है

तेरी चाहत अगर न हो तो कोई योगी भी क्या समझे
तेरे इंगित बिना ज्ञान के सूरज की न किरण जागती

ओ प्राणेश दिशा का अपनी निर्देशन दे मुझको पथ में
दे मुझको भी जगह सूत भर, तू जिसका सारथि उस रथ में
मेरे मन के अंधियारे में बोध दीप को कर दे ज्योतित
कर ले मुझको भी शामिल तू अपने मन के वंशीवट में

तेरे कॄपासिन्धु की लहरें छू लेंगी कब इस मन का तट
लिये प्रार्थना मेरी नजरें रह रह कर बस पंथ ताकतीं.

Monday, July 14, 2008

“बरखा-बहार”....


सूचना

महावीर‘ ब्लॉग पर मुशायरा (कवि-सम्मेलन)

“बरखा-बहार”
वरिष्ठ लेखक, समीक्षक, ग़ज़लकारश्री प्राण शर्मा जीकी प्रेरणा से जुलाई १५, २००८ एवं जुलाई २२,२००८ को ‘इसब्लॉगपर मुशायरे का आयोजन किया जा रहा है।इस ब्लाग पर मुशायरे में शिरकत के लिए कवियों की बड़ी तादाद होने की वजह से मुशायरे कोदो भागोंमें दिया जा रहा है।पहला भाग १५ जुलाईऔरदूसरा भाग २२ जुलाई २००८को दिया जायेगा।

देश-वदेशसे शायरों और कवियों में प्राण शर्मा, लावण्या शाह, तेजेन्द्र शर्मा, देवमणि पांडेय, राकेश खण्डेलवाल, सुरेश चन्द्र “शौक़”,कवि कुलवंत सिंह, समीर लाल “समीर”,नीरज गोस्वामी, चाँद शुक्ला “हदियाबादी”,देवी नागरानी, रंजना भाटिया, डॉ. मंजुलता, कंचन चौहान,डॉ. महक, रज़िया अकबरमिर्ज़ा, हेमज्योत्सना “दीप”, नीरज त्रिपाठी आदि पधार रहे हैं।

आप से निवेदन है कि उनकी रचनाओं का रसास्वादन करते हुए ज़ोरदार तालियों (टिप्पणियों) से मुशायरे की शान बढ़ाएं।
महावीर शर्मा प्राण शर्मा
पत्र-व्यवहार इस ईमेल पर कीजिए :mahavirpsharma@yahoo.co.uk‘
महावीर‘ - http://mahavir.wordpress.com
और अब एक रचना इसी सन्दर्भ में
फिर आई ॠतु बरखा की


फिर आई ॠतु बरखा की

खपरैलों से टपके पानी ज्यों विरहिन की आँखें
छत की झिरियों से रह रह कर काली बदली झांके
दीवारों पर आकर बिजली का चाबुक लहराता
खिड़की के पल्ले खड़काकर पवन झकोरा गाता
फिर आई ॠतु बरखा की

सारा गांव सना कीचड़ में, घर आंगन पगडंडी
हफ़्ते भर से सूख न पाई लालाजी की वंडी
गीली हुईं लकड़ियां सारी, हुआ धुंआसा चूल्हा
सूरज दिखा नहीं परसों से, शायद रस्ता भूला
फिर आई ॠतु बरखा की

सिगड़ी पर भुनते हैं भुट्टे, तलने लगी पकोड़ी
लिये खोमचे दाल बड़े और खस्ता गरम कचौड़ी
हलवाई की तईयों में अंगड़ाई लेते घेवर
आये द्वारे मेघदूत, पी के सन्देसे लेकर
फिर आई ॠतु बरखा की

घर से बाहर निकले आकर छतरी और बरसाती
कागज़ की किश्ती तैराती बाल टोलियां गाती
छत की बंद मोरियां करके पानी का छपकाना
और भीगने पर दादी नानी की झिड़की खाना
फिर आई ॠतु बरखा की.

Monday, July 7, 2008

पीर के तुणीर अक्षय

पीर के तुणीर अक्षय ले खड़ी है ज़िन्दगानी
और हम को युद्ध की फिर से शपथ नूतन उठानी

वक्ष पर सहते रहे हैं कंटकों को फूल करके
राह में चलते रहे हर शूल को पगधूल कर के
हम शिला हैं पीर की रस्सी न चिन्हित कर सकी है
हम बहाते नाव अपनी धार को प्रतिकूल कर के

बात गालिब की हमारी प्रेरणा दायक हुई है
पीर बढ़्ती है अधिक तो और हो लेती सुहानी

हो रहीं खंडित हमारे पांव को छूकर शिलायें
हम नहीं वह, एक पग जो राह में पीछे हटायें
हर चुनौती का दिया हमने सदा मुँहतोड़ उत्तर
हम शिखर हैं लौट जाती हैं जिसे छ्कर घटायें

पीर के इक मंदराचल ने मथा है जो हलाहल
पी उसे संकल्प पर चढ़ती निरंतर नवजवानी

फूल का झरना सुनिश्चित शाख से हम जानते हैं
आदि का हर,अंत होता है इसे भी मानते हैं
किन्तु अपने गिर्द खींचे दायरे के मध्य में हम
हो खड़े जो बात शाश्वत है, कहाँ पहचानते हैं

ढल रही इक सांझ में अक्सर अधूरी रह गई जो
भोर उसको शब्द देकर फिर नयी रचती कहानी