Monday, April 28, 2008

ऑद लूं क्या मौन अब मैं ?

वक्त की कड़कड़ाती हुई धूप में, धैर्य मेरा बरफ़ की शिला हो गया
राह जैसे सुगम हो गई द्वार तक,पीर का अनवरत काफ़िला हो गया
जो कभी भी अपेक्षित रहा था नहीं, शून्य वह ही मेरी आँजुरि में भरा
एक कतरा था टपका जरा आँख से, खत्म जो हो नहीं सिलसिला हो गया------------------------------------------------------------------
भावना सिन्धु में यों हिलोरें उठीं, लग रहा जैसे सच ही प्रलय हो गई
आस के स्वप्न की रश्मि जो शेष थी, बढ़ रहे इस तिमिर में विलय हो गई
पीर के निर्झरों से उमड़ती हुई शब्द की धार ने जब छुआ पॄष्ठ को
अक्षरों को लगाये हुए अंक से लेखनी वेदना का निलय हो गई
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लिख रहा हूँ,लेखनी का कर्ज़ मुझ पर कम जरा हो
शब्द में ढल कर ह्रदय का और हल्का गम जरा हो
अश्रुओं के रंग में डूबी हु इ जो है कहानी
का परस पाकर किसी की आँख पल भर नम जरा हो

Friday, April 25, 2008

हूँ अजीम मैं शायर, मैं हूँ महाकवि

हूँ अजीम मैं शायर, मैं हूँ महाकवि
आप भले मानें इसको या न मानें

मुझको क्या लेना रदीफ़ से, वज़्नों से
किसे काफ़िया कहते हैं ये पता नहीं
बहर नहीं होती कलाम में जो मेरे
इसमें मेरी तो थोड़ी भी खता नहीं
आप इसे समझें चाहे या न समझें
मैं जो लिखता, गज़ल वही बस होती है
और नज़्म की बात आपको क्या बोलूँ
वो तो मेरे पैताने पर सोती है

मेरा हर अशआर लिखा जाता केवल
अकल आपमें कितनी है, ये अजमाने

मुक्तक कहें रुबाई या कताअ कह लें
मुझको कोई फ़र्क नहीं पड़ पाता है
मैं चुटकुले चुरा कर जो लिख देता हूँ
नहीं गांठ से मेरा कुछ भी जाता है
आप अगर न माने मैं हूँ महाकवि
अपनी कलम रहूँगा घिसता कविता पर
आप न जब तक साष्टांग हो करें नमन
रोज आपके पास लाउंगा कुछ लिख कर

मैं उन सब में पहले नंबर पर आया
बुद्धिमता से गईं नवाजी सन्तानें

छंद, गीत, दोहे, कुण्डलियाँ महाकाव्य
सब मेरी छोटी उंगली के हैं अनुयायी
जिसे अकविता कहते, या कविता नूतन
वह तो मेरी प्राण प्रिया है सुखदायी
मैं कवित्त की एक पंक्ति में ले सोलह

दूजी में छत्तीस शब्द बिठलाता हूँ
जिनको नंदन कहा गया बैसाखों के
हर्षित होते हैं, जब जब मैं गाता हूँ

सरगम, घर के पिछवाड़े में रहती है
नित उसको सिखलाता हूँ नूतन तानें

मेरा लोहा जो न माने नहीं कहीं
मुझको देकर फ़ीस, लोग बिठलाते हैं
मांये कहती हैं बच्चों को, चुप होले
देख महाकवि, वरन द्वार पर आते हैं
मैं भाषा का सेवक बिना बुलाये ही
स्वयं पहुंच जाता हूँ हर सम्मेलन में
पिटने की आदत है इतनी, फ़र्क नहीं
दिखता है अंडे, जूते मैं बेलन में

मेरी एक लेखनी में हैं छिपी हुई
लेखन की हर एक विधा की
दस खानें

Monday, April 21, 2008

तुमने मुझसे कहा, लिखूँ मैं गीत तुम्हारी यादों वाले

तुमने मुझसे कहा, लिखूँ मैं गीत तुम्हारी यादों वाले
लेकिन मन कहता है मुझको याद तुम्हारी तनिक न आये

याद करूँ मैं क्योंकर बोलो तीन पौंड का भारी बेलन
जो रोजाना करता रहता था,मेरे सर से सम्मेलन
तवा कढ़ाही, चिमटा झाड़ू से शोभित वे हाथ तुम्हारे
रहें दूर ही मुझसे,नित मैं करता आया नम्र निवेदन

छुटकारा पाया है जिसने टपक रहे छप्पर से कल ही
उससे तुम आशा करती हो, सावन को फिर पास बुलाये

याद करूँ मैं, चाल तुम्हारी, जैसे डीजल का ड्रम लुढ़के
या मुझसे वह बातें करना, जैसे कोई बन्दर घुड़के
रात अमावस वाली कर लूँ, मैं दोपहरी में आमंत्रित
न बाबा न नहीं देखना उन राहों पर पीछे मुड़के

छालों से पीड़ित जिव्हा को आज जरा मधुपर्क मिला है
और तुम्हारा ये कहना है फिर से तीखी मिर्च चबाये

याद करूं मैं शोर एक सौ दस डैसिबिल वाले स्वर का
जिससे गूंजा करता कोना कोना मेरे मन अम्बर का
नित जो दलती रहीं मूंग तुम बिन नागा मेरे सीने पर
और भॄकुटि वह तनी हुई जो कारण थी मेरे हर डर का

साथ तुम्हारे जो भी बीता एक एक दिन युग जैसा था
ईश्वर मुझको ऐसा कोई दोबारा न दिन दिखलाये

तुमने कहा लिखो, पर मैं क्यों भरे हुए ज़ख्मों को छेड़ूँ
बैठे ठाले रेशम वाला कुर्ता मैं किसलिये उधेड़ूँ
जैसे तैसे छुटकारा पाया प्रताड़ना से , तुम देतीं
और तुम्हारी ये चाहत है, मैं खुद अपने कान उमेड़ूँ

हे करुणानिधान परमेश्वर, मेरी यह विनती स्वीकारो
भूले भटके सपना भी अब मुझे तुम्हारा कभी न आये.

Wednesday, April 2, 2008

अमरीका में रहता हूँ जी

पिछले सप्ताह एक समूह पर एक रचना पढी. उस रचना के उत्तर में एक तथाकथित स्वनामधन्य "अमेरिका के महान हिन्दी कवि " की प्रतिक्रिया उलजलूल शब्दों में पढी. हम क्योंकि समझदारी के मामले में थोड़ा तंग हैं इसलिए उनकी रचना समझ नहीं पाए. लिहाजा उन्हें फोन किया, इमेल भेजी और चिट्ठी भी भेजी . जवाब जो अपेक्षित था वह तों मिला नहीं. हाँ उन्होंने जो कुछ इधर उधर की हांक कर समझाया, वह कुछ ऐसे था

अमरीका में जब भी कोई मिलता पूछे क्या करते हो ?
कंप्यूटर के प्रोग्रामर हो या रोगी देखा करते हो ?
या कंसल्टिंग के बिजनेस में अपनी टाँग अडा रक्खी है
या फिर मोटल होटल का व्यवसाय कोई किया करते हो ?
मैं इन सबके उत्तर में बस मुस्ककर इतना कहता हूँ
अमरीका में रहता हूँ जी, मैं कवि हूँ कविता करता हूँ

वैसे मुझको ज्ञान नहीं है ज्यादा कोई भी भाषा का
फिर भी लिखता दीप जलाकर ताली बजने की आशा का
कभी कभी गलती से कोई तुकबंदी भी हो जाती है
जो लिखता हूँ वो मेरी नजरों में कविता हो जाती है
शब्दों के संग उठापटक मैं रोजाना करता रहता हूँ
अमरीका में रहता हूँ जी मैं कवि हूँ कविता करता हूँ

शब्द्कोश की गहराई से भारीभरकम शब्द तलाशे
जिनका समझ न पायें कुछ भी आशय श्रोता अच्छे खासे
मैं जिजीविषा की प्रज्ञा के संकुल के उपमान बना कर
उटपटांग बात कहता हूँ अपने पंचम सुर में गाकर
काव्य धारा की घास मनोहर मैं स्वच्छंद चरा करता हूँ
अमरीका में रहता हूँ जी मैं कवि हूँ कविता करता हूँ

कोई चाहे या न चाहे मैं सम्मेलन में घुस जाता
कथा पीर की मैं दहाड़ कर भरे चुनौती स्वर में गता
कवि सम्मेलन के संयोजक मुझसे कन्नी कटा करते
मेरी बुद्धिमता के आगे अकलमंद सब पानी भरते
मैं हूँ मिट्ठू लाल ढिंढोरा यही सदा पिता करता हूँ
अमरीका में रहता हूँ जी मैं कवि हूँ कविता करता हूँ

Tuesday, April 1, 2008

ये कम्प्यूटर समझदार है

बात् दर असल ये हुई की श्री जी ने शिकायत की की हम उनकी रचनाओं पर कोई टिप्पणी नहीं कर रहे. हमने उन्हें बताया की हम ने तो उनकी कोई रचना पढी नहीं जबकि उनका दावा था की वे हमें लगातार इमेल से भेज रहे थे.काफी जद्दोजहद के बाद हमने पाया की उनकी भेजी हुई सभी रचनाएँ हमारे इमेल के बल्क फोल्डर में सुरक्षित हैं और हमें उन पर निगाह डालने का मौका हमारे कंप्यूटर ने न देकर हमें सरदर्द से बचा रखा था तों निश्चित है की हम कंप्यूटर की शान में कसीदे पढ़ें

यह जो मेरा कम्प्यूटर है, मुझसे ज्यादा समझदार है

बे सिरपैरी, बिना अर्थ की मिलती ऊटपटांग कथायें
तो यह उनको लेजाकर के जंकबाक्स में रख देता है
और कसौटी पर जो इसकी उतरें खरी बिना संशय के
सिर्फ़ उन्हीं को यह आगत की श्रेणी में घुसने देता है

नया उपकरण इसने ओढ़ा, सुनी वक्त की जो पुकार है

जो ये समझ नहीं पाता है, कभी उन्हें दे देता नम्बर
कभी शब्द का असली जो है विकॄत रूप दिखाने लगता
मैने यों तो कई सयाने ओझा अपने पास रखे हैं
उनके मंत्र अगर सुनता है कभी कभी खुद गाने लगता

तेली को यह दिखला देता, कहाँ तेल की बही धार है

संचालक भी सारे कितने जतन किये पर आखिर हारे
कब इसकी क्या मर्जी होगी, केवल यही बता पायेगा
लेकिन इतना हुआ सुनिश्चित, यह मर्मज्ञ श्रेष्ठता का है
छाँट छाँट कर अभिव्यक्ति को लेकर के सन्मुख आयेगा

डाल रखा है अपने काँधों पर इसने खुद बड़ा भार है
ये कम्प्यूटर समझदार है