Monday, January 26, 2009

हाथ सरसों के पीले किये खेत ने

तारकों से टपकती हुई ओस में
रात भर थी घुली गुनगुनी चांदनी
एक नीहारिका के अधर पर टिकी
गुनगुनाती रही मुस्कुरा रागिनी
स्वर मिला ओस से, पांखुरी पर ठिठक
एक प्रतिमा उभरने लगी रूप की
चांद का बिम्ब चेहरा दिखाने लगा
ओढ़नी ओढ़ कर थी खड़ी धूप की

रत्नमय हो सजी वीथिकायें सभी
जैसे आभूषणों की पिटारी खुली


गंध निशिगन्ध की बात करती हुई
केतकी की महक से खड़ी मोड़ पर
बन दुल्हन सज गईम धान की बालियां
स्वर्ण गोटे के परिधान को ओढ़ कर
हाथ सरसों के पीले किये खेत ने
ताल की सीढ़ियां गीत गाने लगीं
पाग पीली धरे शीश टेसू हँसे
और चंचल घटा लड़खड़ाने लगी

पत्तियों पे रजत मुद्रिका सी सजी
ओस की बून्द कुछ हो गई चुलबुली

राह पनघट की जागी उठी नींद से
ले उबासी, खड़ी आँख मलती हुई
भोर दे फूँ क उनको बुझाने लगी
रात की ढिबरियाँ जो थीं जलती हुई
थाल पूजाओं के मंदिरों को चले
स्वर सजे आरती के नये राग में
गंध की तितलियां नॄत्य करने लगीं
शाख पर उग रही स्वर्ण सी आग में

रंग लेकर बसन्ती बही फिर हवा
बालियां कोंपलें गोद उसकी झुलीं

कंबलों को हटा लेके अंगड़ाइयाँ
धूप ने पांव अपने पसारे जरा
खोल परदा सलेटी, क्षितिज ने नया
रंग ला आसमानी गगन में भरा
डोर की शह मिली तो पतंगें उड़ीं
और सीमायें अपनी बढ़ाने लगीं
पेंजनी खूँटियों से उतर पांव में
आ बँधी और फिर झनझनाने लगीं

चढ़ गई आ खुनक देह पर किशमिशी
इक कनक की तुली, दूध में थी धुली

Friday, January 16, 2009

इसीलिये लिखा नहीं गीत नया कोई भी

पीर नहीं उपजी जो तूलिका डुबोता मैं
इसीलिये लिखा नहीं गीत नया कोई भी

कलियों के वादे तो सारे ही बिखर गये
उठे पांव इधर कभी, और कभी उधर गये
भावों ने ओढ़ी न शब्दों की चूनरिया
एकाकी साये थे जो, वे बस संवर गये

फूलों के पाटल पर टँगी नहीं बून्द कोई
रजनी में चन्दा ने शबनम तो बोई थी

आहों के आंसू से जितने अनुबन्ध हैं
और वे जो पलकों में अधरों में बन्द हैं
तोड़ नहीं पाये हैं कैद मगर सच ये है
वही मेरे गीतों के बिना लिखे छन्द हैं

हुआ नहीं चूम सके आकर के गालों को
आंखों में बदरी तो सुबह शाम रोई भी

आंखों में भरा रहा पतझड़ का सूनापन
सन्नाटा पीता सा चाहों का बौनापन
उंगली के पोरों पर रँगे हुए चित्रों में
अल्हड़ सी साधों की दिखती क्वांरी दुल्हन

आमंत्रण देती थी सेज सजी सपनों को
नींद मगर जागी थी, पल भर न सोई भी