पीर नहीं उपजी जो तूलिका डुबोता मैं
इसीलिये लिखा नहीं गीत नया कोई भी
कलियों के वादे तो सारे ही बिखर गये
उठे पांव इधर कभी, और कभी उधर गये
भावों ने ओढ़ी न शब्दों की चूनरिया
एकाकी साये थे जो, वे बस संवर गये
फूलों के पाटल पर टँगी नहीं बून्द कोई
रजनी में चन्दा ने शबनम तो बोई थी
आहों के आंसू से जितने अनुबन्ध हैं
और वे जो पलकों में अधरों में बन्द हैं
तोड़ नहीं पाये हैं कैद मगर सच ये है
वही मेरे गीतों के बिना लिखे छन्द हैं
हुआ नहीं चूम सके आकर के गालों को
आंखों में बदरी तो सुबह शाम रोई भी
आंखों में भरा रहा पतझड़ का सूनापन
सन्नाटा पीता सा चाहों का बौनापन
उंगली के पोरों पर रँगे हुए चित्रों में
अल्हड़ सी साधों की दिखती क्वांरी दुल्हन
आमंत्रण देती थी सेज सजी सपनों को
नींद मगर जागी थी, पल भर न सोई भी
11 comments:
हम तो पहली लाइन पर ही ढेर हो गए ! वाह !
अच्छी भाव अभिव्यक्ति...कलियों के वादे तो सारे ही बिखर गयेउठे पांव इधर कभी, और कभी उधर गयेभावों ने ओढ़ी न शब्दों की चूनरियाएकाकी साये थे जो, वे बस संवर गये
bahut hi sundar kavita...
पीर नहीं उपजी जो तूलिका डुबोता मैं
इसीलिये लिखा नहीं गीत नया कोई भी
बहुत सुंदर !!!
फूलों के पाटल पर टँगी नहीं बून्द कोई
रजनी में चन्दा ने शबनम तो बोई थी
बेहतरीन
ek dard ek mithas ek bhav ek man,lajawaab rachana,shabdh aarth behad behad...khubsurat
मान्यवर सारे के सारे शब्द तो आपके पास हैं अब प्रशंशा कैसे करें...?अद्भुत एक बार फ़िर...मौन हैं और आनंद सरिता में गोते खा रहे हैं...बस.
नीरज
बेहतरीन -बेहतरीन!!! क्या बात कही है!
आहों के आंसू से जितने अनुबन्ध हैं
और वे जो पलकों में अधरों में बन्द हैं
तोड़ नहीं पाये हैं कैद मगर सच ये है
वही मेरे गीतों के बिना लिखे छन्द हैं
.......
Kya kahen ??? adbhud !
"उठे पांव इधर कभी, और कभी उधर गये"
वाह! अति सुन्दर !
बच्चन जी की याद आ गई:" जीवन की आपाधापी में कब वक्त मिला, कुछ देर कहीं पे बैठ, ये सोच सकूँ . . . "
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"हुआ नहीं चूम सके आकर के गालों को
आंखों में बदरी तो सुबह शाम रोई भी "
वाह !! इसके anti thesis मेरी पंक्तियां :)--
"मुस्कुराहट, मुस्कुराहट से मिली टकरा गई
आँखों से उतरी हँसी, गालों पे आ सुस्ता गई ।"
सादर शार्दुला
पीर नहीं उपजी ?
लिखा नहीं गीत नया कोई भी ?
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