Friday, May 23, 2008

अंडे, टमाटर और जूते

पिछले दिनों कुछ ख्वाहिशें पढ़ीं. जिनके दिल की गहराईयों से यह
निकली थीं , उन्हीं महान कवियों के चरण कमलों में मेरी पुष्पांजलि:-

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सड़े हुए अंडे की चाहत
गले टमाटर की अकुलाहट
फ़टे हुए जूते चप्पल की माला के असली अधिकारी
हे नवयुग के कवि, तेरी ही कविता हो तुझ पर बलिहारी

तूने जो लिख दी कविता वह नहीं समझ में बिलकुल आई
"खुद का लिखा खुदा ही समझे" की परंपरा के अनुयायी
तूने पढ़ी हुई हर कविता पर अपना अधिकार जताया
रश्क हुआ गर्दभराजों को, जब तूने आवाज़ उठाई

सूखे तालाबों के मेंढ़क
कीट ग्रसित ओ पीले ढेंढ़स
चला रहा है तू मंचों पर फ़ूहड़ बातों की पिचकारी
हे नवयुग के कवि, तेरी ही कविता हो तुझ पर बलिहारी

पढ़ा सुना हर एक चुटकुला, तेरी ही बन गया बपौती
समझदार श्रोताओं की खातिर तू सबसे बड़ी चुनौती
तू अंगद का पांव, न छोड़े माईक धक्के खा खा कर भी
चार चुटकुलों को गंगा कह, तूने अपनी भरी कठौती

कीचड़ के कुंडों के भैंसे
करूँ तेरी तारीफ़ें कैसे
हर संयोजन के आयोजक पर है तेरी चढ़ी उधारी
हे नवयुग के कवि, तेरी ही कविता हो तुझ पर बलिहारी

क्या शायर, क्या गीतकार, सब तेरे आगे पानी भरते
तू रहता जब सन्मुख, कुछ भी बोल न पाते,वे चुप रहते
हूटप्रूफ़ तू, असर न तुझ पर होता कोई कुछ भी बोले
आलोचक आ तेरे आगे शीश झुकाते डरते डरए

ओ चिरकिन के अमर भतीजे
पहले, दूजे, चौथे, तीजे
तुझको सुनते पीट रही है सर अपना भाषा बेचारी
हे नवयुग के कवि, तेरी ही कविता हो तुझ पर बलिहारी

मानक अस्वीकरण:- अगर मान्य नवयुग के कवि इस रचना को पढ़कर अपनी जेब में से फिर दो दर्जन छुटकुले सुन्नने लगें
तो यह उनकी वैयक्तिक स्वतंत्रता का द्योतक होगा. इस सन्दर्भ में कोई भी दायित्व स्वीकॄत नहीं होगा

Monday, May 12, 2008

मातॄ दिवस- शताब्दी+

मातॄ दिवस एक बार फिर आकर चला गया. फिर इस बार करोड़ो लोगों ने अपनी अपनी मांओं को फूल भेजे, ग्रीटिंग कार्ड भेजे और साथ ही लंच और ब्रंच के साथ मांओं की सराहना की. दिन बीतते न बीतते यह दिन भी एक सौवीं वर्षगांठ के साथ साथ आंकड़ों में बदल गया. कितने टन फूल आयात हुए, कितने गुलदस्ते फ़ेडेक्स- के द्वारा ले जाये गये, रेस्तराओं में कितने प्रतिशत बढोत्तरी हुई, चाकलेट की बिक्री पर क्या प्रभाव पड़ा और बड़े उपभोक्ता सामग्री विक्रेताओं ने इस का कितना लाभ उठाया.

खै्र यह तो आज के पाश्चात्य प्रभाव की त्रासदी है कि इस अमूल्य संपदा की भी मापतोल हो जाती है.
हमारी संस्कॄति और दॄष्टिकोण से

एक शब्द जो " माँ " लिख डला
वह खुद में पूरी कविता है
शब्द इसी में सभी समाहित
इकलौता क्या कह सकता है
कोई उपमा नहीं अलग से
सब उपमायें इससे पूरी
हम सब उसकी परछाईं हैं
बढ़ न सके पल भर भी दूरी.

एक बार फिर नहीं, जितनी भी बार करें कम है नमन.

http://geetkalash.blogspot.com/2008/05/blog-post_11.html