Monday, September 18, 2017

बात रह जाती अधूरी

मुदित मन ने तार छेड़े प्रीत के संध्या सकारे
गंध भर कर के उमंगों में गली आंगन पखारे
सांस में सरगम पिरो अनुराग वाली गीत गाये
मीत की आराधना की खोल दिल के राजद्वारे

किन्तु मिट पाई नहीं फैली हृदय के मध्य दूरी 
बोल न पाये नयन तो बात रह जाती अधूरी

रति मदन संबंध की जब थी चढ़ी पादान हमने
आंख में आंजे 
​हु
ये थे प्रीत के अनमोल सपने
ग्रंथ की गाथाओं के 
​वर्णन 
 हृदय में 
​ला ​
सजाये
एक नव उल्लास से तन मन लगा था तब संवरने

​किन्तु फिर भी सांझ अपना कर ना पाई तन सिंदूरी 
नैन चुप जो रह गए तो बात भी रह ली अधूरी 

उर्वशी से जो  पुरू से     इंद्र से जो ​हैं शची का  
बस उसी  अनुबंध में था बाँध रक्खा मीत  मन का
नील नभ की वादियों में कल्पना का था इक घरोंदा  
दृष्टिकिरणों की छुअन बिन राह गया पल में बिखरता

भूमिकाएं तो लिखी उगते दिवस ने नवकथा की
दोपहर  हर  बार    रूठे, बात  रह जाती अधूरी