Monday, August 17, 2009

पॄष्ठ कोरा पड़ा मेज पर

पॄष्ठ कोरा पड़ा मेज पर पूछता रह गया शब्द मैने जड़े ही नहीं
लेखनी एक करती प्रतीक्षा र्रही, हाथ मेरे उठाने बढ़े ही नहीं
शब्द ने ये कहा गीत कोई लिखूँ,या नये रंग में एक रँग दूँ गज़ल
भावना का न उमड़ा मगर ज्वार फिर छंद ने शिल्प कोई गढ़े ही नहीं.
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स्याही आंसू की पीड़ा ने सौंपी नहीं लेखनी मेरी प्यासी की प्यासी रही
हाशिये पे पसारे हुए पांव को, छाई पन्नों पे गहरी उदासी रही
गीत गज़लों के आकार बन न सके, शिल्प के सारे औज़ार खंडित हुए
और नाकारियत वक्त की मेज पर, हाथ रख कर के लेती उबासी रही
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वक्त ने छीन ली उंगलियों से कलम, भाव ने शब्द का वस्त्र पहना नहीं
छंद, उपमा, अलंकार सब पास हैं, काम आया मगर कोई गहना नहीं
कल्पना के पखेरू मेरे कैद हैं, व्बज़िन्दगी के बिछाये हुए जाल में
भावनाओं की गंगा बँधी बाँध में, और संभव हुआ उसका बहना नहीं
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Tuesday, August 11, 2009

बासठ वर्षों की आज़ादी

हम स्वतंत्र हैं भूल न जायें, एक बार फिर हुई मुनादी
बासठ दिये जला कर अपना, जन्म दिवस करती आज़ादी

हम स्वतंत्र हैं जहां धरा पर चाहें वहीं बिछौना कर लें
हम स्वतंत्र हैं जहां चाह हो, अंबर के नीचे सो जायें
हम स्वतंत्र हैं, चाहें पानी पीकर अपना पेट पाल ले
और अगर चाहें तो प्यासे रह रह कर ही मंगल गायें

एक बार फिर लगी चमकने कलफ़ लगा कर उजली खादी
बासठ दिये जला कर अपना, जन्म दिवस करती आज़ादी

कान्हा के वंशज, स्वतंत्र हम दही दूध के हैं अधिकारी
हम स्वतंत्र, अनुकूल वात में अपनी गायें भेंसे पालें
हां स्वतंत्र हम जो भी मन में आये उनको वही खिलायें
हम स्वतंत्र हैं, हम चाहें तो खुद ही उमका चारा खालें

हम स्वतंत्र हैं, अर्ध शती में तीन गुणा कर लें आबादी
बासठ दिये जला कर अपना, जन्म दिवस करती आज़ादी

हम स्वतंत्र हैं जितने चाहें, खूब उछालें नभ में नारे
हम स्काटलेंड का पानी पीकर जल संकट सुलझायें
हम स्वतंत्र दोनों हाथों से घर की ओर उलीचें सब कुछ
अन्य सभी को सहन शक्ति का धीरज का हम पाठ पढ़ायें

लिखें कथायें सोच न पाईं जो सपनों में नानी दादी
बासठ दिये जला कर अपना, जन्म दिवस करती आज़ादी

हां हम हैं आज़ाद, बनायें दो सौ दर्ज़न नये संगठन
नित्य बनायें मंदिर, बरगद के नीचे पत्थर रंग रंग कर
हम आज़ाद बहायें नदियां दही दूध की प्रतिमाओं पर
हम आज़ाद करें बचपन को कैद, हाथ में फटका देकर

हम स्वतंत्र हैं टेढ़ी कर दें, बातें हों जो सीधी सादी
बासठ दिये जला कर अपना जन्मदिवस करती आज़ादी

Wednesday, August 5, 2009

एक धागा जोड़ रखता

कॄष्ण बन कर गा रहा है आज मेरा मन सुभद्रे
हो रहा प्रमुदित निरंतर मन, लिये नेहा तुम्हारा

ओ सहोदर, वर्ष का यह दिन पुन: जीवन्त करता
स्नेह के अदॄश्य धागे, बाँध जो तुमने रखे हैं
दीप बन आलोकमय करते रहे हैं पंथ मेरा
और जो अनुराग के पल हैं, सुधा डूबे पगे हैं

एक धागा जोड़ रखता ज़िन्दगी के हर निमिष को
और फिर प्रत्येक उसने चेतना का पल निखारा

शब्द में सिमटे कहाँ तक भावना मन में उगीं जो
और कितनी बात वाणी कह सकी तुमको विदित है
किन्तु मेरी मार्गदर्शक है तुम्हारी सहज बातें
और वे संकल्प जिनमें सर्वदा हित ही निहित है

मैं कभी हो पाऊँ उॠण, जानता संभव नहीं है
कामना है, हर जनम पाऊँ तुम्हारा ही सहारा