पॄष्ठ कोरा पड़ा मेज पर पूछता रह गया शब्द मैने जड़े ही नहीं
लेखनी एक करती प्रतीक्षा र्रही, हाथ मेरे उठाने बढ़े ही नहीं
शब्द ने ये कहा गीत कोई लिखूँ,या नये रंग में एक रँग दूँ गज़ल
भावना का न उमड़ा मगर ज्वार फिर छंद ने शिल्प कोई गढ़े ही नहीं.
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स्याही आंसू की पीड़ा ने सौंपी नहीं लेखनी मेरी प्यासी की प्यासी रही
हाशिये पे पसारे हुए पांव को, छाई पन्नों पे गहरी उदासी रही
गीत गज़लों के आकार बन न सके, शिल्प के सारे औज़ार खंडित हुए
और नाकारियत वक्त की मेज पर, हाथ रख कर के लेती उबासी रही
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वक्त ने छीन ली उंगलियों से कलम, भाव ने शब्द का वस्त्र पहना नहीं
छंद, उपमा, अलंकार सब पास हैं, काम आया मगर कोई गहना नहीं
कल्पना के पखेरू मेरे कैद हैं, व्बज़िन्दगी के बिछाये हुए जाल में
भावनाओं की गंगा बँधी बाँध में, और संभव हुआ उसका बहना नहीं
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2 comments:
:(
अब इसका क्या किया जाए, इसे आपकी range समझें या पाठशाला में गणित की कक्षा:) अभी-अभी आपके मीठे से गीत पे टिप्पणी दे के आ रही हूँ और यहाँ पे यह मुक्तक सर झुकाए बैठे हैं .
" ... हाशिये पे पसारे हुए पांव को, छाई पन्नों पे गहरी उदासी रही"
"....और नाकारियत वक्त की मेज पर, हाथ रख कर के लेती उबासी रही"
बहुत ही संजीदे बिम्ब हैं !
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