शब्द शब्द होंठ पर चढ़ा लगे भोजपत्र पर लिखी कथाएं हैं
स्वर में जब ढला तो प्रश्न ये उठा,बोल हैं कि वेद की ऋचाएं हैं
सांस में मलय वनों की गंध ले बांसुरी की तान जैसे गात पर
सात रंग की उठाये तूलिका रेख खींचता है भागु हाथ पर
देवलोक के सलिल प्रवाह सा रूप व्योम भूमि पे दमक रहा
यों लगे की कांति सूर्य मांग कर शीश पर चढ़े हुए चमक रहा
गंध देह की समेट कर चलीं काननों में प्रीतमय हवाएं हैं
बोलती तो हर कली ये पूछती बोल हैं कि वेद की ऋचाएं हैं
सप्त सिंधु नीर के भरे कलश होड़ कर रहेकिपाँव धो सकें
पुष्प हरसिंगार के मचल रहे स्पर्श पाके धन्य आज हो सकें
रोम रोम क्यारियाँ हैं केसरी रक्त वर्ण शतदलों से पग लिए
कल्पना उतर रही है देह धर,पुष्प-धन्व और साथ शर लिए
दृष्टि भेद कर उतरती शिंजिनी , थरथरा रही सभी शिराएँ हैं
और घंटियाँ गले में गूंजती, बोल हैं कि वेद की ऋचाएं हैं
शिल्प के सरोवरों के स्रोत सी प्रेरणा अजन्ता भित्तिचित्र की
छंद में जडी है प्रिय प्रवास के इन्द्रलोक से उतर के उर्वशी
फूल में है रंग औ सुगंध बन भोर सद्यस्नात है प्रयाग की
ले मल्हार सावनी है या कहो है उमंग रंग और फाग की
शुक्ल पक्ष की चतुर्दशी निशा चन्द्रमा की खिल रही कलाएं हैं
चांदनी भी गीत गा रही सुनो बोल हैं कि वेद की ऋचाएं हैं