जो अपने से हो न सका है अब तक वह संवाद हो गये
एक अजनबी सी भाषा का अनचाहा अनुवाद हो गये
कथाकार तो राजद्वार पर चाटुकारिता में उलझे थे
इसीलिये संदेसे जितने नीतिपरक थे गौण रह गये
ललित भैरवी के पदचिह्नों पर चल पाने में अक्षम था
बंसी के स्वर सारंगी की ओढ़ उदासी मौन रह गये
बलिदानों के इतिहासों पर जमीं धूल की मोटी परतें
जहाँ प्राप्ति गलहार बनी थी,केवल वह पल याद हो गये
रथवाहों का कार्य शेष बस द्वारे तक रथ को पहुँचना
मत्स्य वेध का कौशल भी तो नहीं धनुर्धर में अब बाकी
चीरहरण के नाटक में सब पात्र भूमिका भूल गये हैं
कितना कुछ अभिनीत हो गया,कितनी शेष अभी है झांकी
जयमालों के सम्मोहन ने सब कुछ भुला दिया है मन को
आर्त्तनाद के स्वर द्वारे तक आये तो जयनाद हो गये
अक्षर अक्षर चिन चिन रखते कविताओं के कारीगर तो
सहज भावना को शब्दों का कोई रूप नहीं दे पाता
मल्हारों के मौसम में भी राजगायकी के लालच में
कुशल गवैय्या भी अब केवल मालकोंस ही मिलता गाता
कविता तो बन गई चुटकुला मंचों की आपाधापी में
गीत गज़ल के सभी उपासक आज लगा अपवाद हो गये
Tuesday, April 27, 2010
Thursday, April 15, 2010
तुमने जो दे दी मंजूरी
यादों की पुस्तक के खुल कर लगे फ़ड़फ़ड़ाने वे पन्ने
जिन पर अंकित, मेरे प्रस्तावों को तुमने दी मंजूरी
पाणि ग्रहण के पावन पल की वह मॄदु बेला याद आ गई
नयनों की फुलवारी में जब रंग बिरंगे फूल खिले थे
मंत्रोच्चार जगाता था जब अनचीन्ही हर एक भावना
भावों का अतिरेक उमड़ता और मौन से अधर सिले थे
दीपशिखा के नयनों से उठ रहे धुए से बातें करती
लगती थी मंडप में उड़ती हुई गंध पावन कर्पूरी
जो पुरूरवा के अधरों ने लिखी उर्वशी के कपोल पर
भुजपाशों में बांध शची को जोकि पुरन्दर ने दोहराई
वह गाथा अँगड़ाई लेकर फिर मन में जीवन्त हो ग
पुलकित हुईं भावनाऒं में डूब डूब सुधियाँ बौराईं
हैं सुधियों में जगमग जगमग दीवाली के दिये बने वे
निमिष भीगकर हुई चाँदनी जिनमें सहसा ही सिन्दूरी
एक बिन्दु पर जहां धरा से मि्ला गगन बाँहें फ़ैलाकर
जहाँ शून्य के स्वर से मिल कर मन की वाणी छंद हो गई
जब अतॄप्ति की तॄषा पा गई अकस्मात ही सुधा कलश को
उस पल उड़ी धूल पतझड़ की भी जैसे रसगंध हो गई
खोल रहे मन वातायन पट, सुरभित वही हवा के झोंके
जिनमें तुमने घोल रखी है अपने तन मन की कस्तूरी
जिन पर अंकित, मेरे प्रस्तावों को तुमने दी मंजूरी
पाणि ग्रहण के पावन पल की वह मॄदु बेला याद आ गई
नयनों की फुलवारी में जब रंग बिरंगे फूल खिले थे
मंत्रोच्चार जगाता था जब अनचीन्ही हर एक भावना
भावों का अतिरेक उमड़ता और मौन से अधर सिले थे
दीपशिखा के नयनों से उठ रहे धुए से बातें करती
लगती थी मंडप में उड़ती हुई गंध पावन कर्पूरी
जो पुरूरवा के अधरों ने लिखी उर्वशी के कपोल पर
भुजपाशों में बांध शची को जोकि पुरन्दर ने दोहराई
वह गाथा अँगड़ाई लेकर फिर मन में जीवन्त हो ग
पुलकित हुईं भावनाऒं में डूब डूब सुधियाँ बौराईं
हैं सुधियों में जगमग जगमग दीवाली के दिये बने वे
निमिष भीगकर हुई चाँदनी जिनमें सहसा ही सिन्दूरी
एक बिन्दु पर जहां धरा से मि्ला गगन बाँहें फ़ैलाकर
जहाँ शून्य के स्वर से मिल कर मन की वाणी छंद हो गई
जब अतॄप्ति की तॄषा पा गई अकस्मात ही सुधा कलश को
उस पल उड़ी धूल पतझड़ की भी जैसे रसगंध हो गई
खोल रहे मन वातायन पट, सुरभित वही हवा के झोंके
जिनमें तुमने घोल रखी है अपने तन मन की कस्तूरी
Monday, April 5, 2010
टिप्पणी ब्लाग ई मेल और पत्तागोभी के रसगुल्ले
भाई साहब, आप हमारे ब्लाग पोअर पधारें और अपनी अमूल्य टिप्पणी से नवाजें
लगभग रोजाना ही कम से कम ऐसे दस- बारह सन्देश ई मेल के बक्से में मिल जाते हैं. मन में एक प्रश्न उठता है क्यों भाई क्यों पढ़ें हम तुम्हारे ब्लाग को ? हम अपनी पसन्द के लेख अपने आप नहीं छा~ट सकते क्या ?ब्लागवाणी और चिट्ठाजगत जो कल तक हमारी सहायता करते रहे हैं क्या वे बन्द हो गये हैं जो आप अपने बहुमूल्य (?) समय में से समय निकाल कर हमें लिन्क भेज रहे हैं या आपने हमको इतना अज्ञानी समझा है कि हम अपनी पसन्द के चिट्ठे और उन पर हुई पोस्ट न ढूँढ़ सकें जो आप हमारी सहायता करने पर तत्पर हैं.
ठीक है भाइ. हमने मान लिया कि हमें आपके चिट्ठे की जानकारी नहीं है परन्तु जबरदस्ती आप हमारे गले में तो मत ठूंसिये. और अगर बुला भी लिया आपने इस बहाने अपने चिट्ठे पर तो यह क्यों जरूरी है कि हम टिप्पणी भी दें.यह तो यूँ हुआ
भेज रहे हैं नेह निमंत्रण प्रियवर तुम्हें बुलाने को
वालेट अपना संग में लाना बिल चुकता कर जाने को
निमंत्रण तो है ही आने का और फिर आने का हर्जाना भी भुगतें ? न बाबा न.
तुम ई मेल लिखो या चिट्ठे हमको फ़र्क नहीं पड़ता है
मन की तो ऐसी मर्जी है जो चाहे बस वह पढ़ता है
गीत लिखो या नज़्म रचो तुम गज़लें गाओ याकि कहानी
याकि संवारो नये रूप में रोज रोज कविता कल्याणी
लिखो धर्म की बातें या फिर हमको योग तनिक सिखलाओ
और भली ही पंचम सुर में गाना मालकौंस सिखलाओ
माऊस मेरे कम्प्यूटर का लिन्कें क्लिक नहीं करता है
मन की तो ऐसी मर्जी है जो चाहे बस वह पढ़ता है
सिखलाओ तुम कैसे बनते पत्तागोभी के रसगुल्ले
कैसे करें निवेश और फिर कैसे बैठे रहें निठल्ले
राजनीति के दांवपेंच हों ,नक्षत्रों की टेढ़ी चालें
कहां हजम करती हैं चारा कागज़ पर चलती घुड़सालें
नहीं जानना हमको, हमको तो प्यारी अपनी जड़ता है
मन की तो ऐसी मर्जी है जो चाहे बस वह पढ़ता है
तो भाई अपने समय का सदुपयोग आप हमारे लिये न करें. हम आपके निमंत्रण पर न तो आपके ब्लाग पर आने वाले हैं और न ही टिप्पणी करने वाले. आप यह क्यों भूल जाते हैं कि अगर आपकी रचना में दम होगा, आपके लेख में गुंजायश होगी तो पाठक अपने आप ही टिप्पणी दे देगा बरसों पहले दूरदर्शी श्री श्री रहीम दास जी( उन्की आत्मा या रूह से क्षमायाचना सहित )कह गये थे न
बिन मांगे मोती मिले मांगे मिले न भीख
असर लेख में मूढ़ कर, यह सद्गुरु की सीख
और आशा करता हूं कि आपके ईमेल आईडी को मेरा खाता स्पैम करार देकर अवांछित न बना दे.
लगभग रोजाना ही कम से कम ऐसे दस- बारह सन्देश ई मेल के बक्से में मिल जाते हैं. मन में एक प्रश्न उठता है क्यों भाई क्यों पढ़ें हम तुम्हारे ब्लाग को ? हम अपनी पसन्द के लेख अपने आप नहीं छा~ट सकते क्या ?ब्लागवाणी और चिट्ठाजगत जो कल तक हमारी सहायता करते रहे हैं क्या वे बन्द हो गये हैं जो आप अपने बहुमूल्य (?) समय में से समय निकाल कर हमें लिन्क भेज रहे हैं या आपने हमको इतना अज्ञानी समझा है कि हम अपनी पसन्द के चिट्ठे और उन पर हुई पोस्ट न ढूँढ़ सकें जो आप हमारी सहायता करने पर तत्पर हैं.
ठीक है भाइ. हमने मान लिया कि हमें आपके चिट्ठे की जानकारी नहीं है परन्तु जबरदस्ती आप हमारे गले में तो मत ठूंसिये. और अगर बुला भी लिया आपने इस बहाने अपने चिट्ठे पर तो यह क्यों जरूरी है कि हम टिप्पणी भी दें.यह तो यूँ हुआ
भेज रहे हैं नेह निमंत्रण प्रियवर तुम्हें बुलाने को
वालेट अपना संग में लाना बिल चुकता कर जाने को
निमंत्रण तो है ही आने का और फिर आने का हर्जाना भी भुगतें ? न बाबा न.
तुम ई मेल लिखो या चिट्ठे हमको फ़र्क नहीं पड़ता है
मन की तो ऐसी मर्जी है जो चाहे बस वह पढ़ता है
गीत लिखो या नज़्म रचो तुम गज़लें गाओ याकि कहानी
याकि संवारो नये रूप में रोज रोज कविता कल्याणी
लिखो धर्म की बातें या फिर हमको योग तनिक सिखलाओ
और भली ही पंचम सुर में गाना मालकौंस सिखलाओ
माऊस मेरे कम्प्यूटर का लिन्कें क्लिक नहीं करता है
मन की तो ऐसी मर्जी है जो चाहे बस वह पढ़ता है
सिखलाओ तुम कैसे बनते पत्तागोभी के रसगुल्ले
कैसे करें निवेश और फिर कैसे बैठे रहें निठल्ले
राजनीति के दांवपेंच हों ,नक्षत्रों की टेढ़ी चालें
कहां हजम करती हैं चारा कागज़ पर चलती घुड़सालें
नहीं जानना हमको, हमको तो प्यारी अपनी जड़ता है
मन की तो ऐसी मर्जी है जो चाहे बस वह पढ़ता है
तो भाई अपने समय का सदुपयोग आप हमारे लिये न करें. हम आपके निमंत्रण पर न तो आपके ब्लाग पर आने वाले हैं और न ही टिप्पणी करने वाले. आप यह क्यों भूल जाते हैं कि अगर आपकी रचना में दम होगा, आपके लेख में गुंजायश होगी तो पाठक अपने आप ही टिप्पणी दे देगा बरसों पहले दूरदर्शी श्री श्री रहीम दास जी( उन्की आत्मा या रूह से क्षमायाचना सहित )कह गये थे न
बिन मांगे मोती मिले मांगे मिले न भीख
असर लेख में मूढ़ कर, यह सद्गुरु की सीख
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