Monday, March 30, 2009

मिला नहीं संदेश तुम्हारा

मिलती हैं ईमेल सैकड़ों हाटमेल, याहू गूगल पर
लेकिन जिसको ढूँढ़ रहा वह मिला नहीं संदेश तुम्हारा

भर जाता इनबाक्स रोज ही अनचाहे सन्देश प्राप्त कर
इसे खरीदो उसे खरीदो, इस सुविधा का लाभ उठा लो
ढेर सूचनायें होती हैं सच्ची झूठी और अफ़वाहें
जितना मर्जी आये उतना घर पर बैठे कर्जा पा लो

मैं दिलीट तो कर देता हूँ, लेकिन हूँ दस बार सोचता
ऐसा न हो कभी भूल से मिट जाये सन्देश तुम्हारा

कभी भेजने वाले का जो दिखता नाम सुपरिचित होता
पर जब खोले सन्देशे को तब होती खासी झुंझलाहट
दुनिया भर के एकाकी मिल लगता हमें बाँटना चाहें
और मित्रता करने की खातिर हैं रहे लगाये जमघट

पता नहीं क्यों नेटवर्ल्ड के हर इक वाशिन्दे ने पाया
बिना हमारी मंजूरी के पया और घर द्वार हमारा

कुछ सन्देशे मित्र तुम्हारे ने रच डाला मंडल कोई
और सूचना भेज रहे हैं आओ आकर इसमें जुड़ लो,
एक फ़ेसबूक, एक ओरकुट छह दर्ज़न याहू के ग्रुप हैं
छुटकारा है नहीं कहीं भी, किसी दिशा में चाहे मुड़ लो

सुनो आज से चिट्ठी मुझको सिर्फ़ डाक के द्वारा भेजो
ताकि अनर्ग्ल सन्देशों से मिल जाये मुझको छुटकारा
और नेट पर पत्र तुम्हारा ढूँढ़ू कभी नहीं दोबारा

Friday, March 27, 2009

इकानामी

लगा ये चान्दनी हमको जरा धुंधली लगी होने
तो पूछा चन्द्रमा क्या रोशनी अपनी लगा खोने
बताया बीस प्रतिशत की कटौती चल रही है अब
इकानामी का थोड़ा सा असर उस पर लगा होने

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पहले बोले बचत कीजिये, बिना बचत के पार नहीं है
अब कहते हैं खर्च कीजिये , बिना खर्च उद्धार नहीं है
हमने सोचा खर्चा तो हम कर लें, पर बिल भी आयेंगे
क्रेडिट कार्ड इश्युअर अपना कोई रिश्तेदार नहीं है

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मेरा महबूब अब मुझसे यहाँ मिलने नहीं आता
बिचारा फोन पर ही अब मुहब्बत की गज़ल गाता
जो पूछा माजरा क्या है,तो हो मायूस वो बोला
मैं अपनी कार में पेट्रोल बिलकुल भर नहीं पाता

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Wednesday, March 25, 2009

पीर के पन्ने पिचहत्तर

पीर के पन्ने पिचहत्तर सांत्वना के शब्द सत्रह
एक यह अनुपात लेकर चल रही है ज़िन्दगानी

जागती है भोर की पहली किरण की दस्तकों से
और चढ़ती धूप के संग पीर की चढ़ती जवानी
सांझ को ढलती हुई यह देख कर, ज्यादा निखरती
रात में यों महकती है, जिस तरह से रात रानी


एक यह थी कल, यही है आज, होगी कल सुनिश्चित
रोज ही दुहराई जाती बस इसी की तो कहानी

उंगलियों का स्पर्श हो या पांव का हो चिन्ह कोई
खिल उठे है झूम कलियों की मधुर मुस्कान जैसे
और रिसती है सपन की संधि की बारीकियों से
गूँजती तन में, वनों में बांसुरी की तान जैसी

ओस की पी ताजगी चिर यौवना हो कर खड़ी है
करवटों से जुड़ पलों की और हो जाती सुहानी

सांत्वना के हर निमिष का पान कर लेती ठठा कर
छोड़ती अधिपत्य अपना धड़कनों पर से नहीं ये
है सभी भंगुर धरा पर किन्तु शाश्वत बस यही है
सर्जना के आदि से लेकर अभी तक है यहीं ये

बोलता इतिहास जीवन का महज इसकी कहाअनी
हो कोई संदर्भ नूतन, याकि हो गाथा पुरानी

Tuesday, March 17, 2009

देह में बज रही बांसुरी

चांदनी में घुलीं भोर की रश्मियां
दूध में टेसुओं की घुली पांखुरी
केसरी क्यारियों से उठी गंध की
आपकी देह में बज रही बांसुरी
यों लगा आज रतिकान्त की चाहना
शिल्प में ढल के आई मेरे सामने
याकि वरदान बन कर संवर आई है
कामनाओं के जल से भरी आंजुरी

Tuesday, March 3, 2009

रोशनी गुनगुनाने लगी

रोशनी गुनगुनाने लगी
चाँदनी के मचलते हुए साज पर रोशनी गुनगुनाने लगी
रात भर जो कमल पत्र पर था लिखा
इक सितारे ने गंधों भरी ओस से
भोर वह गीत गाने लगी

जुगनुओं की चमक से गले मिल गई
गंध महकी हुई एक निशिगंध की
बादलों ने पकड़ चाँद की उंगलियाँ
याद फिर से दिलाई है सौगंध की
एक झोंका भटकता हुआ फ़ागुनी
थाम कर खिड़कियों को वहीं रुक गया
प्रीत के हाथ मेंहदी रचे देखने
और नीचे उतर कर गगन झुक गया

इक कली खिलखिलाने लगी
संधिवय पार कर उम्र की पालकी
पग को आगे बढ़ाने लगी
इक कली खिलखिलाने लगी

स्वाति के मेघ ने मुस्कुराते हुए
एक उपहार नव, सीपियों को दिया
चाँदनी से पिघल कर सुधा जो बही
ओक भर भर उसे प्यास ने पी लिया
उष्णता दीप की बन के पारस हँसी
देह तपता हुआ स्वर्ण करते हुए
तान पर मुरल्यों की शिरायें थिरक
झूमने लग गईं रास करते हुए

पेंजनी झनझनाने लगी
पाई झंकार तट से तरंगो ने जब
राग नूतन बजाने लगीं
पेंजनी झनझनाने लगी


एक कंदील थक ले उबासी रहा
अलगनी पे समय किन्तु ठहरा रहा
थरथराती हुई पंखुरी का परस
रात के होंठ पर और गहरा रहा
एक बिखरा हुआ जोकि बिखराव था
वो न सिमटा थकी कोशिशें रश्मि की
और विस्तार अपना बढ़ाती रही
एक मीठी तपन शीत सी अग्नि की


चाँदनी डूब जाने लगी
रात भर की जगी, बोझिलें ले पलक
और भी कसमसाने लगी