Monday, November 24, 2014

उत्तर दिशि की सर्द हवायें

छूकर तुमको  आई  लगता उत्तर दिशि से सर्द हवायें
दुलरा कर मेरे तन मन को भर देती नस नस में सिहरन
 
अन्त:सलिला की लहरों का हुआ तरंगित कम्पन लेकर
शिव केशों से निर्झर  बन कर बहती धाराओं का गुंजन 
हिमशिखरों  पर रचे धूप ने, स्वर्णकलश की छलकन को ले
सांस सांस में बो देती हैं आकर के थर थर  सी सरगम
अधरों पर की  स्निग्ध तरलता को भर कर अपने झोंकों में
मेरे अधरों पर जड़ देती मीत तुम्हारा कल्पित चुम्बन
कहती मुझसे ओढ़ूँ मैं फिर  यादों वाली गर्म दुशाला
मन के गलियारे में दीपित सपनों की फिर करूँ दिवाली
और जकड़ लूँ भुजपाशों में झीने से आभास तुम्हारे
और आँज  लूँ आंखों में इक पुष्प-सज्जिता सुरभित डाली
देह तुम्हारी की लहराती बलखाती सी पदचापों से
कर देती छवियों से रंजित, मेरा एकाकी सूनापन
बासंती उषा में छलके पंखुरियों पर तुहित कणों की 
शीतलता को सहस गुना कर जब छूती हैं मुझको आकर 
अनायास ही चित्र तुम्हारे दृष्टि क्षितिज पर आ मंडराते 
रांगोली बन रंग देते हैं मेरे मन की सूनी बाखर 
पत्र विहीना शाखाओं को देती हैं सन्देश तुम्हारा
अभी मोड़ से तनिक परे है पुनर्पल्लवन वाला मौसम
 
इक अनन्त के सघन शीत का अंशजन्य संचित गुण लेकर
तन को मन को यों कचोटती, जैसे तुमने फ़ेरी नजरें
कभी मंद हो, कभी हुईं द्रुत आ कपोल मेरे सहलाती 
कवितामय कर देती मन में कम्पित हुईं हजारों सतरें
रखतीं बांध धूप की गर्मी, अपने आँचल के छोरों में
औ बिखेरती हैं निशि वासर एक अजब बोझिल सी जकड़न.