Tuesday, September 28, 2010

जाते हुए सितम्बर का एक दिन

लाल पीली चूनरी ओढ़े हुए शाखायें हँसतीं
ये सितम्बर मास जाने के लिये सामान बाँधे
साझ के पल ग्रीष्म में फ़ैले हुए थे धूप खाकर
ओढ़ने अब लग गये तन पर सलेटी शाल सादे

तापक्रम सीढ़ी उतरता आ रहा वापिस धरा पर
लग गयीं बहने हवा में कुछ अजानी सी तरंगें

खिड़कियों पर भोर की आ बैठता झीना कुहासा
सूर्य आंखों को मसलते ले रहा रह रह उबासी
रात की अंगनाईयों में दीप से जल कर सितारे
भूमिका लिखने लगे आये शरद की पूर्णमासी

एक सिहरन सी लगी है दौड़ने हर इक शिरा में
ले रही अंगड़ाईयां मन में उमग अनगिन उमंगें

पाखियों ने दूत भेजे हैं पुन: दक्षिण दिशा में
नेघ फ़सलें ला रहे सँग में कपासी ओटने को
ऊन के गोले सुलझ कर टँक गये फिर अलगनी पर
और बन पटुआ दिवस किरणें बटोरे पोटने को

घाटियों से लौट कर आती हुई आवाज़ कोई
उड़ रही आकाश पर मन के बनी पीली पतंगें

गीतकार
२७ सितम्बर २०१०

Monday, September 20, 2010

मुहब्बत में

लुटा उनकी अदाओं से जिसे सब दिल बताते हैं


न जाने क्यों हमें सब लोग अब गाफ़िल बताते हैं

मुहब्बत है नहीं सस्ती, बहुत खर्चा हुआ इसमें

ये आये आज क्रेडिट कार्ड वाले बिल बताते हैं



कहा हमने मुहब्बत में जो उनसे एक दिन गाकर

कहें तो मांग में भर दें, सितारे चांद हम लाकर

बड़े अन्दाज़ से बोले, न जाओ दूर इतना तुम

हमें बस पांच केरट का महज स्टोन दो लाकर

Friday, September 10, 2010

मैने तो बस शब्द लिखे हैं

जो गीतों का सॄजन कर रहा वो मैं नहीं और है कोई
मैने तो बस कलम हाथ में अपने लेकर शब्द लिखे हैं

जो ढले हैं छंद में वे भाव किसके हैं, न जाने
जो पिरोये बिम्ब हैं वे हैं नये या हैं पुराने
अन्तरों में कौन से सन्दर्भ की गांठें लगीं हैं
और किस की लय लगी है गीत की सरिता बहाने

भटक रहा हूँ मैं भी यह सब प्रश्न लिये द्वारे चौबारे
किन्तु अंधेरे ही छाये हर इक द्वारे पर मुझे दिखे हैं

किस तरह बन फूल संवरे कागज़ों पर आन अक्षर
रह गये हैं शब्द किसकी रागिनी में आज बंधकर
कौन करता है प्रवाहित इस सरित को, कौन जाने
मैं धुंये के बिम्ब में ही रह गया लगता उलझकर

शायद कोई किरन ज्योति की आये आकर मुझे बताये
क्या है वह जिस पर इस मन के आशा व विश्वास टिके हैं

कौन सहसा खींच देता चित्र,श्ब्दों में पिरोकर
व्योम भरता बिन्दु में, ला एक मुट्ठी में सम्न्दर
प्रेरणा में कल्पना में चेतना में भावना में
फूँकता अभिव्यक्तियों में धड़कनें अपनी समोकर

ढाल रहा है कौन न जाने स्वर के सांचे में शब्दों को
किसका है अलाव न जाने,जिसमें ये सब सदा सिके हैं