कॄष्ण बन कर गा रहा है आज मेरा मन सुभद्रे
हो रहा प्रमुदित निरंतर मन, लिये नेहा तुम्हारा
ओ सहोदर, वर्ष का यह दिन पुन: जीवन्त करता
स्नेह के अदॄश्य धागे, बाँध जो तुमने रखे हैं
दीप बन आलोकमय करते रहे हैं पंथ मेरा
और जो अनुराग के पल हैं, सुधा डूबे पगे हैं
एक धागा जोड़ रखता ज़िन्दगी के हर निमिष को
और फिर प्रत्येक उसने चेतना का पल निखारा
शब्द में सिमटे कहाँ तक भावना मन में उगीं जो
और कितनी बात वाणी कह सकी तुमको विदित है
किन्तु मेरी मार्गदर्शक है तुम्हारी सहज बातें
और वे संकल्प जिनमें सर्वदा हित ही निहित है
मैं कभी हो पाऊँ उॠण, जानता संभव नहीं है
कामना है, हर जनम पाऊँ तुम्हारा ही सहारा
6 comments:
:)
और कितनी बात वाणी कह सकी तुमको विदित है
किन्तु मेरी मार्गदर्शक है तुम्हारी सहज बातें
और वे संकल्प जिनमें सर्वदा हित ही निहित है
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अति सुन्दर !
इस सुन्दर गीत के लिए आपका आभार !
पर्व विशेष पर अनुपम गीत. आनन्द आ गया.
रक्षा बंधन के पावन पर्व की शुभकामनाऐं.
कॄष्ण बन कर गा रहा है आज मेरा मन सुभद्रे
हो रहा प्रमुदित निरंतर मन, लिये नेहा तुम्हारा
मन से मन का पवित्र बंधन दर्शाती ये रचना मन को स्पर्श कर गई!आभार!
शब्द में सिमटे कहाँ तक भावना मन में उगीं जो
और कितनी बात वाणी कह सकी तुमको विदित है
सच है कि भाव शब्दों में सिमट नहीं पाते पर ईशारा तो कर ही जाते हैं। बहुत सुंदर गीत है। शब्दों से इंद्रधनुष खींच दिया है आपने।
aaj ke is paavan parv par
sabse anmol uphaar
aapne diya
____________ABHINANDAN AAPKAA..........
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