Monday, April 21, 2008

तुमने मुझसे कहा, लिखूँ मैं गीत तुम्हारी यादों वाले

तुमने मुझसे कहा, लिखूँ मैं गीत तुम्हारी यादों वाले
लेकिन मन कहता है मुझको याद तुम्हारी तनिक न आये

याद करूँ मैं क्योंकर बोलो तीन पौंड का भारी बेलन
जो रोजाना करता रहता था,मेरे सर से सम्मेलन
तवा कढ़ाही, चिमटा झाड़ू से शोभित वे हाथ तुम्हारे
रहें दूर ही मुझसे,नित मैं करता आया नम्र निवेदन

छुटकारा पाया है जिसने टपक रहे छप्पर से कल ही
उससे तुम आशा करती हो, सावन को फिर पास बुलाये

याद करूँ मैं, चाल तुम्हारी, जैसे डीजल का ड्रम लुढ़के
या मुझसे वह बातें करना, जैसे कोई बन्दर घुड़के
रात अमावस वाली कर लूँ, मैं दोपहरी में आमंत्रित
न बाबा न नहीं देखना उन राहों पर पीछे मुड़के

छालों से पीड़ित जिव्हा को आज जरा मधुपर्क मिला है
और तुम्हारा ये कहना है फिर से तीखी मिर्च चबाये

याद करूं मैं शोर एक सौ दस डैसिबिल वाले स्वर का
जिससे गूंजा करता कोना कोना मेरे मन अम्बर का
नित जो दलती रहीं मूंग तुम बिन नागा मेरे सीने पर
और भॄकुटि वह तनी हुई जो कारण थी मेरे हर डर का

साथ तुम्हारे जो भी बीता एक एक दिन युग जैसा था
ईश्वर मुझको ऐसा कोई दोबारा न दिन दिखलाये

तुमने कहा लिखो, पर मैं क्यों भरे हुए ज़ख्मों को छेड़ूँ
बैठे ठाले रेशम वाला कुर्ता मैं किसलिये उधेड़ूँ
जैसे तैसे छुटकारा पाया प्रताड़ना से , तुम देतीं
और तुम्हारी ये चाहत है, मैं खुद अपने कान उमेड़ूँ

हे करुणानिधान परमेश्वर, मेरी यह विनती स्वीकारो
भूले भटके सपना भी अब मुझे तुम्हारा कभी न आये.

6 comments:

नीरज गोस्वामी said...

राकेश भाई
वाह..कमाल किया है आप ने. हमें तो आप की इस विधा का तनिक भी भान नहीं था, हम तो आप को प्रेम विछोह,पीड़ा के कवि ही मानते आए थे लेकिन आप ने हास्य का एक विलक्षण उधाहरण दे कर हमारे बंद नेत्र ही खोल दिए हैं. एक एक पंक्ति से हास्य टपकता है. सुबह सुबह आनंद आ गया. आप सचमुच एक सम्पूर्ण कवि हैं. इस अभूतपूर्व कविता पर हमारी हार्दिक बधाई. वाह वा.. वाह वा.....अलग से.
नीरज

Alpana Verma said...

हा हा हा हा !!!! बहुत ही हँसी आयी इस कविता को पढ़ कर--दोबारा पूरा रस ले कर पढ़ रही हूँ --कल्पना कर रही हूँ !!!ऐसी कवितायें सुरेन्द्र शर्मा या काका हाथरसी सुनाया करते थे---

पारुल "पुखराज" said...

बहुत बढ़िया "राकेश जी" ये रंग भी खूबसूरत

Udan Tashtari said...

हा हा!!!

आपके प्रति मेरी पूर्ण सहानभूति...दुख में अपना सहभागी ही मानें.

साथ तुम्हारे जो भी बीता एक एक दिन युग जैसा था
ईश्वर मुझको ऐसा कोई दोबारा न दिन दिखलाये


--आमीन!!!!

-मजा आ गया राकेश भाई. यहाँ घर पर सबको सुनाई. बेलन नजदीक आता देख बता दिया कि राकेश भाई लिखें हैं-हम नहीं. अब आप झेलिये. :)

कंचन सिंह चौहान said...

ये होता है कवि...रुलाने पर उतरे तो रोना न रुके और हँसाने चाहे तो खिलखिलाहट न वश में आये...!

प्रणाम

Dr.Bhawna Kunwar said...

आपका ये अंदाज भी पंसद आया... बधाई स्वीकारें...