Monday, July 7, 2008

पीर के तुणीर अक्षय

पीर के तुणीर अक्षय ले खड़ी है ज़िन्दगानी
और हम को युद्ध की फिर से शपथ नूतन उठानी

वक्ष पर सहते रहे हैं कंटकों को फूल करके
राह में चलते रहे हर शूल को पगधूल कर के
हम शिला हैं पीर की रस्सी न चिन्हित कर सकी है
हम बहाते नाव अपनी धार को प्रतिकूल कर के

बात गालिब की हमारी प्रेरणा दायक हुई है
पीर बढ़्ती है अधिक तो और हो लेती सुहानी

हो रहीं खंडित हमारे पांव को छूकर शिलायें
हम नहीं वह, एक पग जो राह में पीछे हटायें
हर चुनौती का दिया हमने सदा मुँहतोड़ उत्तर
हम शिखर हैं लौट जाती हैं जिसे छ्कर घटायें

पीर के इक मंदराचल ने मथा है जो हलाहल
पी उसे संकल्प पर चढ़ती निरंतर नवजवानी

फूल का झरना सुनिश्चित शाख से हम जानते हैं
आदि का हर,अंत होता है इसे भी मानते हैं
किन्तु अपने गिर्द खींचे दायरे के मध्य में हम
हो खड़े जो बात शाश्वत है, कहाँ पहचानते हैं

ढल रही इक सांझ में अक्सर अधूरी रह गई जो
भोर उसको शब्द देकर फिर नयी रचती कहानी

1 comment:

Udan Tashtari said...

राकेश भाई

अगर तारीफ को शब्द दिये तो रचना की ऊँचाईयों को मैं नाप ही नहीं पाया, यह माना जायेगा. अतः मौन-स्तब्ध ताक रहा हूँ इस रचना को. बस, यही सबके साथ होगा..यह मेरा वादा रहा.