कैसे होंगे गीत आपके अधरों पर जो आयेंगे
जिन्हें आप सरगम के गहने पहना पहना गायेंगे
मेरे शब्दों की किस्मत में लिखा हुआ ठोकर खाना
आज संभल कर उठे किन्तु ये कल फिर से गिर जायेंगे
छंदों की उजड़ी बस्ती में भावों का ये चरवाहा
अक्षर हैं भटकी भेड़ों से, कैसे फिर जुड़ पायेंगे
भावों की गठरी के ॠण का मूल अभी भी बाकी है
और ब्याज पर ब्याज चढ़ रहा कैसे इसे चुकायेंगे
नीलामी सुधि की सड़कों पर, लेकिन ग्राहक कोई नहीं
मुफ़्त तमाशे के दर्शक तो अनगिनती मिल जायेंगे
2 comments:
आज क्या बात है, गज़ल बही जा रही है...बहुत बढ़िया.
छंदों की उजड़ी बस्ती में भावों का ये चरवाहा
अक्षर हैं भटकी भेड़ों से, कैसे फिर जुड़ पायेंगे
बहुत खूब.
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