Friday, August 3, 2007

कैसे बोझ उठायेंगे

कैसे होंगे गीत आपके अधरों पर जो आयेंगे
जिन्हें आप सरगम के गहने पहना पहना गायेंगे

मेरे शब्दों की किस्मत में लिखा हुआ ठोकर खाना
आज संभल कर उठे किन्तु ये कल फिर से गिर जायेंगे

छंदों की उजड़ी बस्ती में भावों का ये चरवाहा
अक्षर हैं भटकी भेड़ों से, कैसे फिर जुड़ पायेंगे

भावों की गठरी के ॠण का मूल अभी भी बाकी है
और ब्याज पर ब्याज चढ़ रहा कैसे इसे चुकायेंगे

नीलामी सुधि की सड़कों पर, लेकिन ग्राहक कोई नहीं
मुफ़्त तमाशे के दर्शक तो अनगिनती मिल जायेंगे

2 comments:

Udan Tashtari said...

आज क्या बात है, गज़ल बही जा रही है...बहुत बढ़िया.

रजनी भार्गव said...

छंदों की उजड़ी बस्ती में भावों का ये चरवाहा
अक्षर हैं भटकी भेड़ों से, कैसे फिर जुड़ पायेंगे
बहुत खूब.