पिछले दिनों भारत यात्राअ के दौरान ऐसा भी हुआ कि २ दिन तक दिल्ली की जल-व्यवस्था ठप्प हो गई. नहाने की बात तो छोड़िये, पीने के लिये भी पानी आधी दिल्ली से नदारद था. साथ ही साथ बिजली भी आँख मिचौनी खेलने पर उतारू थी. ऐसे मौके पर अचानक एक पत्रकार की आत्मा
कुछ पल के लिये भटकते हुए हमारे पास आ गई और उसने जो लिखवाया वह बिना किसी संशोधन के प्रस्तुत है. कॄपया इसे गंभीरता से न लें
दिल्ली की सत्ता अगस्त्य बन
निगल गई सारी धारायें
और निवेदन ठुकरा देती
है बेचारे भागीरथ के
जमना एक रोज उमड़ी थी
द्वापर में, ये कभी सुना था
लेकिन आज छुपी है वह भी
नीचे रेती की तलहट के
ताल वावड़ी कुँए सूखे
हर राही हैरान खड़ा है
और देखता केवल नारे-
प्रगति पंथ पर देश बढ़ा है
इन्द्र देव के वज़्र अस्त्र में
सिमट गई बिजली भी जाकर
निगल गये वंशज सूरज के
तम की सत्ता के सौदागर
ज्योति पुंज की अथक साधना
ध्रुव के कोई काम न आई
लगता है नचिकेता ने भी
चुप रहने की कसम उठाई
वो दीपक भी कहीम सो गया
जोकि तिमिर से सदा लद़्आ है
इस सबसे क्या, उधर देख लो
प्रगति शिखर पर देश चढ़ा है
उमर कटोरा लिये हाथ में
खड़ी हुई है चौराहों पर
दरवेशी जितने थे चल्ते
सब ही आज अलग राहों पर
इधर बंद है, उधर दंभ है
सबकी अपनी अपनी सत्ता
और बेचारा आम आदमी
बना हुआ त्रेपनवां पत्ता
हर आशा का फूल, खिले बिन
उपवन मेम चुपचाप झड़ा है
लेकिन असली बात यही है
प्रगति पंथ पर देश बढ़ा है
2 comments:
" और बेचारा आम आदमी
बना हुआ त्रेपनवां पत्ता "
क्या खूब लिका है आपने राकेश जी -- बेहद मार्मिक व सटीक -
स्नेह,
- लावण्या
दिल्ली का तो सच आपने पेश कर दिया… किंतु आप भारत आये और हम सब से मिले बिना चले गये…??? :( :(
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