Friday, August 9, 2013

आओ फिर कवितायें जी लें


 
आओ फिर कवितायें जी लें
 
पीड़ा धुंध अँधेरा काँटे
पांव पांव में पड़ी विवाई
मेरी पीड़ा तेरी पीड़ा
सबकी पीड़ा है दुखदाई
आईने में अपने सँग सँग
तनिक दूसरों को भी देखें
और देख कर उनके आँसू
अपनी आहें मुँह में सी लें
 
आओ फिर कवितायें जी लें
 
संबोधन से परिवर्तित कब
होते कहो अर्थ भावों के
ढूँढ़ें हम वे शब्द करें जो
प्रतिनिध्त्व बस अनुरागों के
रचें शब्द वे नये बसी हो
जिनमें वासुधैव की खुश्बू
अपने घर ही नहीं,गांव भर
में जाकर टाँकें  कंदीलें
 
आओ फ़िर कवितायें जी लें
 
चुटकी भर या मुट्ठी भर ही
तो है पास समय की पूँजी
करें खर्च यह तनिक जतन से
प्राप्त नहीं होगी फिर दूजी
ध्वंसों के बिखरावों से हम
निर्मित करें नीड़ नूतन ही
नीलकंठ के अनुयायी हो
बरसा हुआ हलाहल पी लें
 
आओ फिर कवितायें जी लें.

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