कल शाम सुनीता जी ने अपने निवास पर एक गोष्ठी का आयोजन किया और चिट्ठाकारों से साक्षात करने का अवसर दिया. अरुण जी, नीलिमाजी , सुजाताजी, मोहिन्दर, संजीत सारथी के साथ साथ लालजी श्री समीर लाल, अजय,अविनश वाचस्पति, शैलेश और निखिल आदि से मुलाकात हुई. काकेश,सॄजन शिल्पी और प्रत्यक्षा की प्रतीक्षा गोष्ठी के अंतिम चरण तक रही. डा०कुंअर बेचैन, महेश जी और दिनेश रघुवंशी को सुनने का अद्वितीय मौका मिला.
इन सभी को सुनने के बाद लेखनी अपने अप कह उठी
छंद के बंद आते नहीं हैं मुझे, इसलिये एक कविता नहीं लिख सका
लोग कहते रहे गीत शिल्पी मुझे, शिल्प लेकिन नयाएक रच न सका
फिर भी संतोष है तार-झंकार से जो उमड़ती हुई है बही रागिनी
शब्द की एक नौका बहाते हुए,साथ कुछ दूर तक मैं उसे दे सका
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बोझ उसका है कांधे पे भारी बहुत, जो धरोहर हमें दी है वरदाई ने
और रसखान की वह अमानत जिसे, बांसुरी में पिरोया था कन्हाई ने
हमको खुसरो के पगचिन्ह का अनुसरण नित्य करना है इतना पता है हमें
और लिखने हैं फिर से वही गीत कुछ, जिनको सावन में गाया है पुरवाई ने
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लेखनी किन्तु अक्षम हुई है लगा शब्द से जोड़ पाती है नाता नहीं
मन पखेरु चला आज फिर उड़ कहीं, गीत कोई मगर गुनगुनाता नहीं
जो न संप्रेष्य होता स्वरों से कभी भाव, अभिव्यक्तियों के लिये प्रश्न है
भावनाओं का निर्झर उमड़ता तो है, धमनियों में मगर झनझनाता नहीं
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कांपते हैं अधर, थरथराती नजर, कंठ में कुछ अटकता हुआ सा लगे
और सीने की गहराईयों में कोई दर्द सहसा उमड़त हुआ सा लगे
चीन्ह पाने की असफ़ल हुईं कोशिशें, कोई रिश्ता नहीं अक्षरों से जुड़े
मात्रा की छुड़ा उंगलियां चल दिया,शब्द मेरा भटकता हुआ सा लगे
8 comments:
बहुत बढि़यॉं, स्वागत और बधाई
आपसे और समीर जी से मिलने की मनोकामना पूर्ण हुई और आप जैस कलम के धनी लोगों की उपस्थिति ने इस समारोह को एक यादगार बना दिया.
मैं दिल्ली से बाहर था अन्यथा आपसे व समीर जी से मिलने का मौका तो नहीं ही चूकता.
आपकी गोष्ठी अच्छी रही जानकर खुशी हुई.
राकेश जी,माँ सरस्वती का आशिष है आप पर ..
ये कविता भी उन्हीँ की देन है.
पढकर बहुत प्रसन्नता हुई
कवि सम्मेलन मेँ हिस्सा लेनेवाले, सभी को श्रध्धापूर्वक, नमन !
स स्नेह,
-- लावण्या
बोझ उसका है कांधे पे भारी बहुत, जो धरोहर हमें दी है वरदाई ने
और रसखान की वह अमानत जिसे, बांसुरी में पिरोया था कन्हाई ने
हमको खुसरो के पगचिन्ह का अनुसरण नित्य करना है इतना पता है हमें
और लिखने हैं फिर से वही गीत कुछ, जिनको सावन में गाया है पुरवाई ने
आपके आगमन से हम कृतज्ञ हो गये
शूल सभी एक पल में फूल हो गये
जो गीत कलश ले आप आये गुरूवर
स्वर मेरी वीणा के मधुर हो गये...
आपने सजाया चिट्ठाकारी का उपवन
आपकी हँसी में गुलजार सारा जीवन
सबके दिलों की जान आप गुरूवर
जो आप आये द्वार हम निहाल हो गये...
सुनीता(शानू)
कांपते हैं अधर, थरथराती नजर, कंठ में कुछ अटकता हुआ सा लगे---ठीक ऐसा ही अनुभव हुआ था जब न भारत आ सके और न ही अंर्तजाल पर देख सुन सके...भाषा समृद्ध और भाव परिष्कृत ... ऐसी रचना पढ़कर बुद्धि काम ही नहीं करती कि प्रतिक्रिया कैसे की जाए....!!!
Timir daaran Mihir darso!!
Nirala
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