तुमने कहा न तुमको छेड़ा कभी किसी ने ओ कुरूपिणे
इसीलिये छेड़ा है मैने तुमको सीटी एक बजाकर
हमदर्दी के कारण केवल कदम उठाया है ये सुन लो
अब ऐसा मत करना मेरे गले कहीं पड़ जाओ आकर
नहीं छेड़ती सुतली जैसी ज़ुल्फ़ तुम्हारी कभी हवा भी
बेचारी कोशिश करती है, लेकिन जुटा न पाती हिम्मत
एक बार चुनरी अटकी थी रेहड़ी से संकरी गलियों में
और किसी की हो पाती ये संभव हुआ नहीं है ज़ुर्रत
कोई पास तुम्हारे आकर खड़ा हो सके नामुमकिन है
जब तुम घर से निकला करती हो लहसुन की कली चबाकर
देह यष्टि का क्या कहना है, मिट्टी का लौंदा हो कोई
रखा हुआ ढेरी में जैसे कहीं चाक पर कुंभकार के
और तुम्हारी बोली की क्या बात कहूँ मैं शब्द नहीं हैं
संटी खाकर चीखा करता है भेंसा जैसे डकार के
मुँह को ढाँपे तुम्हें देख कर रात अमावस वाली शरमा
कोलतार ले गया तुम्हारे चेहरे से ही रंग चुरा कर
रहे चवन्नी छाप गली के जितने आशिक नजर चुराते
भूले से भी नहीं निगाहें नजर तुम्हारी से छू जायें
चमगादड़ सी आंखों वाली, कन्नी तुमसे सब ही काटें
तुम वह, जिसका वर्णन करती हैं डरावनी परी कथायें
नुक्कड पर बस एक तुम्हारी बातें होतीं भिन्डी-नसिके
साहस नहीं आईने का भी होता जाये सच बतलाकर
6 comments:
मोहक रूप दिखाया है जो रचना में राकेश।
अगर संगिनी ऐसी हो तो जीवन भर का क्लेश।।
सादर
श्यामल सुमन
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सौ टका तय है की यदि कोई अपनी प्रेयसी से पीछा छुडाना चाहे तो यह रूप वर्णन जाकर उसे सुना दे....
लाजवाब सौन्दर्य वर्णन है नायिका का....
मुँह को ढाँपे तुम्हें देख कर रात अमावस वाली शरमा
कोलतार ले गया तुम्हारे चेहरे से ही रंग चुरा कर
-इतना भीषणतम नख शिख वर्णन करेंगे तो गले तो पड़ेगी ही आकर...अब जरा संभलियेगा...पूरी कविता से उस रुपणी का जो चित्र उभरा कि प्राण ही हवा हो गये प्रभु!!! :)
बहुत ही अच्छा उपाय सुझाया है आपने .............सुन्दर
ये क्या ?? बहुत बढ़िया है भाई. वाह !!
हमदर्दी के कारण केवल कदम उठाया है ये सुन लो
अब ऐसा मत करना मेरे गले कहीं पड़ जाओ आकर :)))
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