Monday, July 13, 2009

बरखा- अतीत के झरोखों से

बरखा
किसी देवांगना के स्नात केशों से गिरे मोती
विदाई में अषाढ़ी बदलियों ने अश्रु छलकाए
किसी की पायलों के घुँघरुओं ने राग है छेड़ा
किसी गंधर्व ने आकाशमें पग आज थिरकाए

उड़ी है मिटि्टयों से सौंध जो इस प्यास को पीकर
किसी के नेह के उपहार का उपहार है शायद
चली अमरावती से आई हैयह पालकी नभ में
किसी की आस का बनता हुआ संसार है शायद

सुराही से गगन की एक तृष्णा की पुकारों को
छलकता गिर रहा मधु आज ज्यों वरदान इक होकर
ये फल है उस फसल का जोकि आशा को सँवारे बिन
उगाई धूप ने है सिंधु में नित बीज बो बो कर

- राकेश खंडेलवाल
5 सितंबर 2005

5 comments:

निर्मला कपिला said...

किसी देवांगना के स्नात केशों से गिरे मोती
विदाई में अषाढ़ी बदलियों ने अश्रु छलकाए
किसी की पायलों के घुँघरुओं ने राग है छेड़ा
किसी गंधर्व ने आकाशमें पग आज थिरका
सुन्दर सामयिक रचना आभार्

ओम आर्य said...

badhiya hai barkha ka atit ....sundar

Udan Tashtari said...

किसी के नेह के उपहार का उपहार है शायद

--वाह!! आनन्द आ गया पढ़कर! अति उत्तम!!

रंजना said...

क्या अद्भुद चित्रण किया है आपने.......प्रशंशा को शब्द कहाँ से लाऊं........

Shardula said...

"विदाई में अषाढ़ी बदलियों ने अश्रु छलकाए"
"सुराही से गगन की एक तृष्णा की पुकारों को
छलकता गिर रहा मधु आज ज्यों वरदान इक होकर"