बरखा
किसी देवांगना के स्नात केशों से गिरे मोती
विदाई में अषाढ़ी बदलियों ने अश्रु छलकाए
किसी की पायलों के घुँघरुओं ने राग है छेड़ा
किसी गंधर्व ने आकाशमें पग आज थिरकाए
उड़ी है मिटि्टयों से सौंध जो इस प्यास को पीकर
किसी के नेह के उपहार का उपहार है शायद
चली अमरावती से आई हैयह पालकी नभ में
किसी की आस का बनता हुआ संसार है शायद
सुराही से गगन की एक तृष्णा की पुकारों को
छलकता गिर रहा मधु आज ज्यों वरदान इक होकर
ये फल है उस फसल का जोकि आशा को सँवारे बिन
उगाई धूप ने है सिंधु में नित बीज बो बो कर
- राकेश खंडेलवाल
5 सितंबर 2005
5 comments:
किसी देवांगना के स्नात केशों से गिरे मोती
विदाई में अषाढ़ी बदलियों ने अश्रु छलकाए
किसी की पायलों के घुँघरुओं ने राग है छेड़ा
किसी गंधर्व ने आकाशमें पग आज थिरका
सुन्दर सामयिक रचना आभार्
badhiya hai barkha ka atit ....sundar
किसी के नेह के उपहार का उपहार है शायद
--वाह!! आनन्द आ गया पढ़कर! अति उत्तम!!
क्या अद्भुद चित्रण किया है आपने.......प्रशंशा को शब्द कहाँ से लाऊं........
"विदाई में अषाढ़ी बदलियों ने अश्रु छलकाए"
"सुराही से गगन की एक तृष्णा की पुकारों को
छलकता गिर रहा मधु आज ज्यों वरदान इक होकर"
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