अभी घर पहुंच कर जूते उतार भी नहीं पाये थे कि फोन की घंटी बजनी शुरू हो गई. एक पांव का जूता उतरा और दूसरे का लटका ही रहा जब हमने दौड़ते दौड़ते जाकर फोने उठाया :-
" हलो ! गीतकार जी बोल रहे हैं न "
" जी हां. हैं तो हम ही " हमने जबाब दिया और सोच में पड़ गये कि यह अजनबी आवाज़ किसकी हो सकती है.
" नमस्कार गीतकार जी. मुझे आपका पता एक चिट्ठाकार भाई से मिला..... " उधर से बात शुरू हुई
" जी " हमने कहा. " बतलायें कि हम आपकी क्या सेवा कर सकते हैं "
" हैं हैं हैं " उधर से आवाज़ आई " दर असल आमरीका मेंविश्व हिन्दी सम्मेलन होने वाला है न, उसी के विषय में आपसे बात करनी थी "
" जी कहिये क्या बात है " ? हम अधीर हो रहे थे. चाय की चाहत परेशान कर रही थी.
चाह त चाय की है नैरन्तर रही, चाह इस पर कोई जोर होता नहीं
भोर संध्या दुपहरी कहीं कोई भी चाय की चाह के बीज बोता नहीं
ये है संजीवनी , ये है निद्रा हरक और तो और सावन की काली घटा
चाय की एक चुस्की लिये बिन कभी आके दामन किसी का भिगोता नहीं
चाय की अधीरता में यह ध्यान ही नहीं रहा कि हमारे विचार होठों से फूट पड़े है. मालूम तब हुआ जब उधर से आवाज़ आई
क्या कह रहे हैं आप, घटा का चाय से क्या ताल्लुक ?
छोड़िये इसे. हम बात टालना चाहते थे.
नहीं नहीं! आपको ये तो बताना ही पड़ेगा.
बात को छोटी करने के उद्देश्य से हमने स्पष्ट किया कि मानसून की हवायें जब हिमालय की शॄंखला से टकरा कर वापिस लौटती हैं तभी घटा बन कर उमड़ती हैं और हिमालय की तराई में ही तो चाय के बागान हैं. तभी तो उन पर होकर जब वापिस आती हैं तभी तो बरस पाती हैं.
खैर अब बताइये . आपने फोन्रे कैसे किया ? हमने पूछा
वे बोले-- साहब जुलाई में न्यूयार्क में हिन्दी सम्मेलन हो रहा है न, आप उसकी समिति में हैं.
जी हां. तो फिर ? हमने पूछा
वे बोले- ऐसा है गीतकारजी. हम पिच्हले तीस वर्षों से हिन्दी की सेवा कर रहे हैं और लोग हमें जानते नहीं. तो सोचा कि आपको इस विषय में बता दें.
हम बोले, ठीक है आप हिन्दी की क्या सेवा कर रहे हैं बताईये ? हमने कभी उनका नाम भी नहीं सुना था पने लगभग पच्छीस वर्षों के अमेरिका प्रवास में हिन्दी के किसी भी सन्दर्भ में.
जी वे बोले, हम हिन्दी के विशेष सेवक है> यूसी. हम पिछले तीस सालों से महीने में एक दिन सिर्फ़ हिन्दी में ही बात करते हैं
अच्छा. हमने उत्सुकता दिखाई. तो कौन कौन शामिल है आपके इस अनुष्ठान में ?
जी हमारे घर के लगभग सभी सदस्य हिन्दी में ही बात करते हैं
अच्छा. किय्तने लोग हैं आपके घर में.
जी मेरी पत्नी और मेरी पत्नी की माँ. दर असल मेरी सास को इंग्लिश नहीं आती.
हमारे सब्र का बाँध अब टूट ही गया. हमने बहाना बनाकर उनसे निजात ली कि हमारा भारत से टेलीफोन आ रहा है इसी विषय में और हम उनसे बाद में बात करेंगें
खैर चाय पीने के बाद जो कलम मचली तो:-
योजना गांव बसने की जैसे बनी
आये, डेरे भिखारी लगाने लगे
कल तलक ऊँट से तन अकेले रहे
कोई समझा न अपने सरीखा कभी
एक भदरंग से रंग में डूब कर
अपनी पहचान करते रहे थे बड़ी
आज जब आईना इनको दिखने लगा
देखते देखते सकपकाने लगे
ज्ञान के , अपने चेहरे, मुखौटे लगा
संत से बन के आसन जमाने लगे
बहती गंगा में हाथों को ये धो सकें
इसलिये ही तटॊ पे ये आने लगे
नाम के ये भिखारी, हैं धन के नहीं
चाहते नाम की पूँछ लम्बी लगे
शोहरतों का पुलन्दा बँधा इक बड़ा
वक्ष पर इनके तमगे सरीखा लगे
इसलिये जैसे देखा लकीरें खिंची
नीले कागज़ पे, तस्वीर बनने लगी
भावना इनके भाषा से अनुराग की
तोड़ कर बाँध सहसा उफ़नने लगी
सर पे इनके रखा जाये कोई मुकुट
धक्के दे इसलिये आगे आने लगे
जानते हैं कि होते सभा भंग ये
फिर से कोटर में अपने दुबक जायेंगे
ये लगाये हैं हिन्दी की बैसाखियां
अपने पांवों पे दो पग न चल पायेंगे
सावनी दादुरों के ये पर्याय हैं
इनकी अपनी नहीं अस्मिता शेष है
कल थे जयचंद ये, आज भी हैं वही
फ़र्क इतना कि बदला हुआ भेष है
एक श्रोता मिला तो ये विरुदावली
चारणों सी स्वयं की सुनाने लगे
5 comments:
हा हा, बात कहने का यह भी अनोखा अंदाज रहा बड़ा भीगा भीगा सा...आवाज भी नहीं आई और... :) बहुत खूब, बधाई.
सर पे इनके रखा जाये कोई मुकुट
धक्के दे इसलिये आगे आने लगे
बहुत सही कहा है आपने .....बधाई
जय हो भाईसाहब,
बताइए कैसे कैसे लोगों की काल पहुँच जाती हैं आप तक, और हमारी जाम हो जाती हैं।
कविता बढ़िया है, हमेशा की तरह।
हा हा!
वो दिन याद आ गया जब किसी के मुख से यह सुना था कि 'हे! टुडे इज हिंदी डे ना? सो, लेट्स टॉक इन हिंदी।"
नये अंदाज को पहळी दफा देख रहा हूँ क्या कहूं बस
:) :)…।
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