Thursday, March 29, 2007

मुक्तक महोत्सव-१८ से २२ तक

मित्रों,
आप लोगों के आग्रह पर मुक्तक महोत्सव पुनः प्रारंभ किया जा रहा है. अब यह साप्ताहिक होगा और हर मंगलवार को ५ मुक्तक आपकी सेवा में पेश किये जायेंगे.
आशा है टिप्पणियों के माध्यम से आप इस महोत्सव को सफल बनायेंगे.

प्रस्तुत मुक्तक इसी महोत्सव का भाग हैं.



भोर से साँझ तक मेरे दिन रात में आपके चित्र लगते रहे हैं गले
मेरे हर इक कदम से जुड़े हैं हुए, आपकी याद के अनगिनत काफ़िले
आपसे दूर पल भर न बीता मेरा, मेरी धड़कन बँधी आपकी ताल से
आपकी सिर्फ़ परछाईं हूँ मीत मैं, सैकड़ों जन्म से हैं यही सिलसिले



गुलमोहर, मोतिया चंपा जूहीकली, कुछ पलाशों के थे, कुछ थे रितुराज के
कुछ कमल के थे,थे हरर्सिंगारों के कुछ,माँग लाया था कुछ रंग कचनार से
रंग धनक से लिये,रंग ऊषा के थे, साँझ की ओढ़नी से लिये थे सभी
रंग आये नहीं काम कुछ भी मेरे, पड़ गये फीके सब, सामने आपके



तुमको देखा तो ये चाँदनी ने कहा, रूप ऐसा तो देखा नहीं आज तक
बोली आवाज़ सुनकर के सरगम,कभी गुनगुनाई नहीं इस तरह आज तक
पाँव को चूमकर ये धरा ने कहा क्यों न ऐसे सुकोमल सुमन हो सके
केश देखे, घटा सावनी कह उठी, इस तरह वो न लहरा सकी आज तक



मुस्कुराईं जो तुम वाटिकायें खिलीं, अंश लेकर तुम्हारा बनी पूर्णिमा
तुमने पलकें उठा कर जो देखा जरा, संवरे सातों तभी झूम कर आसमां
प्यार करता हूँ तुमसे कि सिन्दूर से करती दुल्हन कोई ओ कलासाधिके
मेरा चेतन अचेतन हरैक सोच अब ओ सुनयने तुम्हारी ही धुन में रमा.



मेरे मानस की इन वीथियों में कई, चित्र हैं आपके जगमगाये हुए
ज़िन्दगी के हैं जीवंत पल ये सभी, कैनवस पर उतर कर जो आये हुए
चाय की प्यालियाँ, अलसी अँगड़ाईयाँ, ढ़ूँढ़ते शर्ट या टाँकते इक बटन
देखा बस के लिये भी खड़े आपको पर्स,खाने का डिब्बा उठाये हुए



* ** * * ** *


4 comments:

Udan Tashtari said...

चलिये, यह बढ़िया रहा, कम से कम आपने हम लोगों की बात रखते हुये इसे फिर से शुरु किया. अब हर मंगलवार को इंतजार रहेगा. बहुत शुभकामनायें. :)

Mohinder56 said...

परिन्दों को नहीं, गगन को देख कर, हमने कोशिश की उडान की
नज़म, गज़ल, क़विता, मुक्तक, छन्द की नही हमें तमीज़
जो दिल को छू ले, हम तो तारीफ करते हैं, उस जुबान की...

"रंग आये नहीं काम कुछ भी मेरे, पड़ गये फीके सब, सामने आपके"
"पाँव को चूमकर ये धरा ने कहा क्यों न ऐसे सुकोमल सुमन हो सके"
"केश देखे, घटा सावनी कह उठी, इस तरह वो न लहरा सकी आज तक"

वाह वाह वाह्

Anonymous said...

चलिए मुक्तक फिर से शुरू होने का उत्सव मनाते है. :)

Unknown said...

बहुत सुन्दर....एक से बढ़कर एक!!