Monday, March 19, 2007

आचार संहिता गई तेल लेने ( अचार डालेंगे न )

चिट्ठों की आचार संहिता पढ़ कर सोच रहे थे कि क्या किया जाये. लिखने के लिये शब्द कौन से शब्द कोष से ढूँढ़े जायें. चाचा चिरकिन का दीवान तो मिल नहीं पाया जिसे उद्दॄत कर के छुटकारा मिल जाता.
अब खैर लिखना तो है ही. चिट्ठों के स्वरूप के बारे में भैया चौधरी, रतलामी, समीरानंद जी, बेंगाणी, फ़ुरसतियाजी , नाहरजी आदि ट्रैफ़िक पुलिस बाले सिपाही की तरह हाथ में रुकिये का पट्टा लेकर खड़े हैं और चिट्ठाकारों का ट्रैफ़िक ऐसे चल रहा है : -






अब जो जैसे चल रहा है चलने दें. हम अपनी बात पर आते हैं

पिछले दिनों एक महानुभाव को शिकायत थी कि चिट्ठों की चर्चा के साथ समीक्षा भी होनी चाहिये. अब गुरुजन तो शालीनता का सहारा लेकर खिसक लिये तो यह बीड़ा हम उठाये लेते हैं. सबसे पहले अभी दो तीन दिन् पहले की पोस्ट एक कविता में

छिपकलियां नहीं सरक रही थीं

अब अगर सपनों की छिपकलियां नहीं सरकेंगी तो क्या भुजपाशों के विषधर आपको आलिंगन में लेकर बिच्छू डंकों से चुम्बन प्रदान नहीं करेंगे. भईय़ॆ माना कि पारस्परिक प्रशंसा समिति ( Mutual Admiration Society ) के सदस्य आपकी वाह वाह करने से बाज नहीं आयेंगे पर इसका मतलब यह तो नहीं कि घास छीलने की खुरपी से गुलाब की पंखुरियों को संवारने का प्रयास किया जाये.

अभी हाल में किया गया एक विज्ञापन कि " मुझे गज़ल भी लिखना आता है " में ज़िक्र है कि तथाकथित शायर गज़लें भी लिखते हैं. यह और बात है जो कुछ लिखा गया है उसका गज़ल से बीस किलोमीटर दूर का भी रिश्ता नहीं है. शायद भाई साहब ने कहीं सुन लिया होगी कि दो लाइन में जोड़ तोड़ कर लिख दो, सब उसे गज़ल मान लेंगे. और अगर बाकी के न मानें तो युम्हारे बीस पच्चीस साथी हां में हां तो मिला ही देंगें.

एक और रचना प्रस्तुत हुई है. ईमानदारी की बात है लेखक ने पहले ही चेता दिया- क्या करूँ मुझे लिखना नहीं आता ( तो भाई साहब लिखना सीख लो न- मना किसने किया है ) और सच्ची बात यह कि उन्होने दावा तो नहीं किया कि वे सर्वज्ञ हैं ( अक्षरग्राम वाले नहीं ) और वे गज़ल लिख रहे हैं
अब यह दूसरी बात है कि उन्होने लिखा कि वे जो सबसे शर्माते हैं किसी को नहीं देखते और फिर भी अरमान लिये बैठे हैं कि वे उनसे नजरें मिलायेंगे. ( अजी हुज़ूर. दिन में तारे देखने की कोशिश बेकार होती है )

आप समझ रहे हैं न , हम क्या कह रहे हैं-- क्या कहा ! समझ नहीं आया तो भाई साहब हम क्या करें समीक्षा तो ऐसे ही होती है

एक साहब ने राग अलापा- मैं आपके लिये नहीं लिखता. अब भाई अगर आप हमारे लिये नहीं लिख रहे हो तो नारद पर क्या कर रहे हो ? और अगर नारद पर यह विज्ञापित करना भर है कि आप को लिखने का शौक है तो हमने मान लिया. अब आप जाईये और जब हमारे लिये लिखें तब वापिस तशरीफ़ लाईये.

चलिये हमारी कोशिश हो गई समीक्षा के तलबगार भाई साहब की शिकायत दूर कर दी है. आपको या चाहे जिसको नागवार गुजरे तो गुजरे. ज्यादा गुस्सा हों तो भाई पड़ौसी के खेत में जाकर दो भुट्टे और उखाड़ लेना.

7 comments:

Anonymous said...

वाह क्या कहने ! ये हुई न बात. अच्छी की समीक्षा.
अरुणिमा गुप्ता

मसिजीवी said...

वाह वाह वाह
MAS (Mutual Admiration Society) हमें तो इसका कुछ खास पता नहीं। जरा बोर्ड आफ डाइरेक्‍टर का परिचय भी मिल जाता।

ePandit said...

बहुत खूब, ईंट का जवाब पत्थर से।

पारस्परिक प्रशंसा समिति ( Mutual Admiration Society ) का सदस्य बनने के लिए क्या करना होता है, वैसे हम उसके ऑलरेडी मेम्बर हैं या नहीं ?

Sanjeet Tripathi said...

लिखा बढ़िया है आपने पर क्या इसमें कहीं खिल्ली उड़ाने वाला भाव नहीं आ गया है।
खैर MAS की सदस्यता मुझे भी लेनी है, पथप्रदर्शन करें

उन्मुक्त said...

इस सोसायटी का सदस्य तो मुझे भी बनना है

रवि रतलामी said...

हा हा हा...
ये हुई न समीक्षा-वमीक्षा.
आग्रह है कि आगे भी जारी रखा जाए...

रहा सवाल एमएएस का, तो इसका स्वयंभू अध्यक्ष मैं बन जाता हूँ :)

चलते चलते said...

आचार संहिता लेकिन बनाएगा कौन। बड़ी बोरियत का काम है। ऐसा करिए जिन जिन लोगों को ढ़ेर सारी फुरसत है उन सभी को लेकर बैठ जाएं और बना ले। जो लोग आचार संहिता को नहीं मानेंगे उनके लेख हम गुगल या याहू अथवा एमएसएन सर्च इंजिन में पढ़ लेंगे। लेकिन आचार संहिता बनाने से पहले प्रेस काउंसिल ऑफ इंडिया, सूचना प्रसारण मंत्रालय से बात जरुर कर लेना। भारत के संविधान को भी देख लेना। और जब आचार संहिता बन जाए तो एक डिब्‍बा मुझे भी भिजवा देना क्‍योंकि गर्मीयों में हरी सब्जियों का अकाल रहता है तो उस समय इस आचार से रोटी खा लूंगा।