Saturday, March 24, 2007

मुक्तक महोत्सव-१

मित्रों,
पिछले कुछ दिनों से आप लोगों के द्वारा मुक्तक की पेशकश के लगातार आग्रह को अब टाल पाना मेरे लिये संभव नहीं हो पा रहा है. अगले कुछ माह के लिये मैं मुक्तक महोत्सव मना रहा हूँ. इस उत्सव के दौरान आपकी सेवा में हर रोज अनेकों स्व-रचित मुक्तक पेश करुँगा. पहले पढ़ने के लिये और फिर अगर संभव हुआ तो इसी क्रम में अपनी आवाज में गाकर भी. आप इन्हें इत्मिनान से पढ़े, इस लिये एक एक करके पोस्ट करुँगा ताकि आप इन मुक्तकों का संपूर्ण आनन्द ले सकें. आशा है टिप्पणियों के माध्यम से आप इस महोत्सव को सफल बनायेंगे.


प्रस्तुत मुक्तक इसी महोत्सव का भाग है.




प्रीत मेरी शिराओं में बहती रही शिंजिनी की तरह झनझनाये हुए
छेड़ता मैं रहा नित नई रागिनी बाँसुरी को अधर पर लगाये हुए
कल्पना की लिये तूलिका आज तक एक ही चित्र में रंग भरता रहा
मैने देखा तुम्हें लेते अंगड़ाईयाँ दूधिया चांदनी में नहाये हुए

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