अभी अभी आराम के मूड में बैठने का प्रयास किया ही था कि फोने की घंटी ने उठने को मज़बूर कर दिया. ब्लागर भाई साहब का फोने था. हमारे हलो कहते ही दनदना दिये
" मियां गीतकार ! ये क्या कर रहे हो " ?
"क्या" हम असमंजस में पड़ कर पूछ बैठे.
" ये तुम्हें समीक्षा वमीक्षा का भूत कैसे सवार हो गया ? सुनो ये सब टंटे छोड़ो और अपना काम करो ".
कौन सा काम ? हमने पूछा.
वे बोले, भई तुम तो बस हमारी व्यथा सबके सामने पहुंचा दिया करो. वैसे तो हम भी ब्लाग लिखते हैं परन्तु समस्या ये है कि हमारे ब्लाग को हमारे मित्रों के अलावा कोई नहीं पढ़ता और अगर हम अपनी आप बीती लिखदेंगे तो हमारी बीवी तक बात पहुँच जायेगी और फिर हमारी खैर नहीं.
ऐसी क्या बात हो गई भाईजी. आखिर भाभीजी से इतना डर किसलिये ?
तो भाई लोगो, भाई साहब ने अपना किस्सा सुना कर हमसे अनुरोध किया कि हम उसे गीत में ढाल कर आप सब तक पहुँचायें . क्योंकि हमारी हिम्मत भाई साहब का कहा टालने की हो ही नहीं सकती तो उनका दुखड़ा आपके सामने प्रस्तुत है.
हम मानते हैं कि आप में से कई भाई लोगों को यह अपनी आप बीती लग सकती है. इस विषय में हम साफ़ लिख रहे हैं कि भाई साहब ! हमारी मंशा आपकी बात लिखने की नहीं है सिर्फ़ भाई साहब की बात लिख रहे हैं. समझ गये न भाई साहब.
तुम तो सोते रहे रात भर नींद चैन की, ले खर्राटे
रही अनिद्रा प्रश्न उठाती, ये भी तुमने क्यों न बाँटे
सप्त पदी की लगा दुहाई, तुमने हर अधिकार जताया
तुमको जो कुछ लगा हाथ में, सारा ही तुमने हथियाया
पाँच किलो रबड़ी खाने का जब जब मुझको मिला निमंत्रण
आधी घर पर लानी होगी, वरना ! कह कह कर धमकाया
सारे फूल ले गईं चुन कर, छोड़े हैं मुझको बस काँटे
ये बतलाओ आधे आधे, ये सब क्यों न मुझसे बाँटे
मैं ग्वाला मथुरा का वासी, कॄष्ण कन्हैया का आराधक
माखन मिश्री के मेरे भोगों में तुम बनती हो बाधक
सवामनी के जिजमानों ने भिजवाये जो भरे टोकरे
सब के सब डकार डाले हैं चुटकी भर भी लिया न पाचक
मैं कुछ कहता हूँ तो कहती, पड़े अकल पर मेरी भाटे
ये बतलाओ आधे आधे तुमने मुझसे क्यों न बाँटे
कितने दिन तक और सहूँ मैं , कहो तुम्हारी तानाशाही
बीत चुके दस बरस, और तुम अब भी करती हो मनचाही
रसगुल्ले, चमचम, काजू की बरफ़ी सब ही छीन चुकी हो
कम से कम अब एक छोड़ दो मेरी खातिर बालूशाही
एक बार का सौदा करके, रोज उठाता हूँ मैं घाटे
ये बतलाओ आधे आधे, तुमने मुझसे क्यों न बाँटे
रही अनिद्रा प्रश्न उठाती, ये भी तुमने क्यों न बाँटे
सप्त पदी की लगा दुहाई, तुमने हर अधिकार जताया
तुमको जो कुछ लगा हाथ में, सारा ही तुमने हथियाया
पाँच किलो रबड़ी खाने का जब जब मुझको मिला निमंत्रण
आधी घर पर लानी होगी, वरना ! कह कह कर धमकाया
सारे फूल ले गईं चुन कर, छोड़े हैं मुझको बस काँटे
ये बतलाओ आधे आधे, ये सब क्यों न मुझसे बाँटे
मैं ग्वाला मथुरा का वासी, कॄष्ण कन्हैया का आराधक
माखन मिश्री के मेरे भोगों में तुम बनती हो बाधक
सवामनी के जिजमानों ने भिजवाये जो भरे टोकरे
सब के सब डकार डाले हैं चुटकी भर भी लिया न पाचक
मैं कुछ कहता हूँ तो कहती, पड़े अकल पर मेरी भाटे
ये बतलाओ आधे आधे तुमने मुझसे क्यों न बाँटे
कितने दिन तक और सहूँ मैं , कहो तुम्हारी तानाशाही
बीत चुके दस बरस, और तुम अब भी करती हो मनचाही
रसगुल्ले, चमचम, काजू की बरफ़ी सब ही छीन चुकी हो
कम से कम अब एक छोड़ दो मेरी खातिर बालूशाही
एक बार का सौदा करके, रोज उठाता हूँ मैं घाटे
ये बतलाओ आधे आधे, तुमने मुझसे क्यों न बाँटे
1 comment:
हमें तो जरुर लग रही है, अपनी आप बीती... :)
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