Friday, October 19, 2007

टिप्पणियों की ख्वाहिश

शाम को श्री जी आये और आते ही हुकुम दनदनाया, " चलो काफ़ी पिलवाओ बहुत परेशान हैं हम"
हमने पूछा परेशानी की वज़ह क्या है तो बोल पड़े कि इतने दिन हो गये , रोज दफ़्तर में बास की नजर बचाकर, घर में बीबी से झगड़ा करके बिला नागा पोस्ट पर पोस्ट लिखे जा रहे हैं दनादन पर कोई आता ही नहीं टिप्पणी करने को.. कई बार तो हमने एग्रीगेटर के माध्यम से अपने चिट्ठे का कई बार दरवाज़ा खटखटाया ताकि लोग क्लिक की संख्या देख कर ही आ जायें और हमारे चिट्ठे पर टिपिया जायें.

फिर एक पल को ठहर कर बोले, सुनो. हम तुमको अपना मित्र और हितैषी समझे थे पर तुम भी सारे ज़माने की साजिशों में शरीक हो गये हो तभी तो तुम भी हमारे चिट्ठे पर टिप्पणी करने नहीं आते.

हमने श्रीजी को समझाने की कोशिश की :-


प्रतिक्रियायें लोग दें अथवा नहीं उनका चयन है
लेखनी का कार्य है कर्तव्य को अपने निभाना

आप तो लिखे जाईये, सार्थक होगा तो लोग अपने आप आयेंगे टिपियाने के लिये और आपको धमाकेदार, सनसनीखेज शीर्षक भी नहीं ढूँढ़ने पड़ेंगे, जिनके सहारे आप पाठकों को न्यौता भेजते रहें.

लेकिन हमारी बात उनके गले के नीचे नहीं उतरी. हमें लगा कि वे झगड़ा करने पर उतारू हैं तो हमने फिर कहा, " सुनिये आप जानते हैं न कि कुछ प्रविष्टियां ऐसी होती हैं जो न चाहते हुए भी टिप्पणी स्वत: ही करवा लेती हैं और कुछ पर आप चाह कर भी टिप्पणी नहीं कर पाते. "

उन्होने समर्थन में अपना सिर हिलाया तो हमारे हौसलों को थोड़ा मज़बूती मिली. हमने फिर कहा, देखिये हम भी जब जब चिट्ठा जगत में प्रवेश करते हैं, अपने साथ टिप्पणियों का थैला लेकर चलते हैं. परन्तु जानते हैं क्या होता है?

वे बोले, बताओ क्या होता है.

तो हमने कहा लीजिये:



टिप्पणियां हम लिये हाथ में चिट्ठा चिट्ठा घूम रहे हैं
कोई ऐसा मिला नहीं हम जि्स पर जाकर इन्हें टिकाते

यों तो टिप्पणियों की ख्वाहिश लिये हुए था हर इक चिट्ठा
कहता था हर इक पुकार कर आयें आप इधर को आयें
देखें हमने कितनी मेहनत से यह सारे शब्द संजोये
इन पर एक बार तो आकर प्रियवर अपनी नजर घुमायें

उन पर जाकर पढ़ा बहुत कुछ , कुछ तो समझे, कुछ न समझे
लेकिन ऐसा एक नहीं था जिस पर चिप्पी एक लगाते

हां फ़ुरसतिया और पुराणिक या सुबीर के भी चिट्ठे हैं
उड़नतश्तरी, रवि रतलामी, पर सब नजर टिका बैठे हैं
सब बराबरी करना चाहें इनके जितनी मिलें टिप्पणी
ईमेलों से भेज निमंत्रण, पलकें पंथ बिछा बैठे हैं

लेकिन उड़नतश्तरी वाले, हम, समीर से नहीं हो सके
जो हर इक चिट्ठे पर जाकर अपना अनुग्रह सहज लुटाते

अस्सी मिनट सिरफ़ गिनती के, जिनमें पढ़ना है लिखना है
और रोज चिट्ठों की संख्या को भी तो बढ़ते रहना है
चाहा सब पर करें टिप्पणी , लेकिन उपजी नहीं प्रेरणा
दो दर्जन न समझ आ सके, उफ़ बाकी का क्या कहना है

प्रत्यक्षा काकेश सभी ने हमको समीकरण समझाया
लेकिन हमें न कुछ मिल पाया हम जिसको जाकर लौटाते

बस साहब, अब आप ही बतायें कि हम क्या करें ?


7 comments:

Udan Tashtari said...

नमन करता हूँ महाराज आपकी चिट्ठा यात्रा को. सही है, जहाँ उचित समझें वहीं टिपयायें...हम तो बस बाट जोह रहे हैं आपके आगमन की जो हो ही जाता है. :)

बेहतरीन लिख गये आप इस मुद्दे पर जिस पर सब सोचते हैं. बधाई.

अनिल रघुराज said...

अस्सी मिनट सिरफ़ गिनती के, जिनमें पढ़ना है लिखना है...
यही समस्या अपनी भी गीतकार जी। फिर भी घसीटे पड़े हैं।

काकेश said...

आप भलें ही ना टिपियाय़ें बस आते रहें और पढ़ते रहें यही कामना है.और हम भी भले ही ना टिपियाय़ें आपको पढ़ते रहते हैं..कभी देर से आते हैं तो पहले की रचनाऎं भी पढ़ डालते हैं.

Dr Prabhat Tandon said...

सिर्फ़ ८० मिनट ,कुछ तो चिट्ठाकारी पर रहम खाइये और अपना समय बढाइये :)

अनूप शुक्ल said...

धांसू है। आप बस लिखते रहिये। हम पढ़ने आयेंगे। टिपियायेंगे भी।

Anonymous said...

वह समय दूर नहीं है जब सिर्फ ब्लॉगर aggregators की साईट पर ही जायेगे आप की साइट पर उन्हें आने के जरुरत ही महसूस नहीं होगी ।

उन्मुक्त said...

हम तो टिपा देते हैं