Monday, June 25, 2007

एक मुक्तक और

उंगलियों ने मेरी थाम ली तूलिका, चित्र बनने लगे हर दिशा आपके
चूम ली जब कलम उंगलियों ने मेरी नाम लिखने लगी एक बस आपके
पांखुरी का परस जो करें उंगलियां, आपकी मूर्ति ढलती गई शिल्प में
किन्तु गिन न सकीं एक पल, उंगलियां जो जुड़ा है नहीं ध्यान से आपके

5 comments:

Udan Tashtari said...

वाह!!! बहुत खूब राकेश भाई. मजा आ गया.

काकेश said...

अच्छा चित्रण.

सुनीता शानू said...

सबसे पहले आपसे माफ़ी चाहती हूँ काफ़ी समय से ना कुछ लिख पाई हूँ ना ही पढ़ पाई हूँ...

बहुत अच्छा लिखा है आपने...किन्तु गिन न सकीं एक पल, उंगलियां जो जुड़ा है नहीं ध्यान से आपके ...

आपकी रचना में भाव बहुत गहरे होते है...

बधाई...
सुनीता(शानू)

राजीव रंजन प्रसाद said...

आपके गीत गहरे होते हैं और स्पंदित करते हैं।

*** राजीव रंजन प्रसाद

Divine India said...

"इतनी मधुरता से मधुवन को रच डाला मुक्तक में पढ़ता तो था मैं मगर इस सोंच से परेशान था की अब कहीं यहीं पर इस भावना का अंत तो नहीं
आ गया…।"

राकेश जी… Ultimate.