जाने कैसी हवा चली है, क्या हो गया ज़माने को
जिसको देखो, वही खड़ा, ले आईना दिखलाने को
इस हमाम में नहीं देखता कोई अपनी उरियानी
जिम्मेदार बने हैं औरों पर उंगलियां उठाने को
इस नगरी में दशरथनंदन रहते सदा निशाने पर
कौन जाये उनकी गलियों में अहमक को समझाने को
बिछे हुए हैं अब शोले ही शजरों की परछाईं में
आप लाये कच्चे सूतों की दरियां यहाँ बिछाने को
नाम नये दे देकर फिर फिर से उसको दोहराते हो
कब तक और सुनाओगे इक घिसे पिटे अफ़साने को
बात अदब की तो करते हैं, पर करते बेअदबी से
नाम आप जो देना चाहें दें ऐसे नादानों को
है लिबास तो, लेकिन इनकी फ़ितरत हुई न इंसानी
मौका मिलते ही बेचा करते अपने भगवानों को
5 comments:
बहुत सामयिक एवं आपकी अद्भुत शैली में कही गयी एकदम खरी बात. नमन है आपको.
ब्लाग के नाम पर फ़ैल रही गंदगी में आपने कमल खिलाया है
अरे वाह! एक दम बिन्दास लिखा है, मज़ा आया:) पर हुआ क्या? आज हॄदय अशान्त सा कैसे है?
अरि
आभार कि इतनी सुन्दर रचना पढवायी आपनें
जाने कैसी हवा चली है, क्या हो गया ज़माने को
जिसको देखो, वही खड़ा, ले आईना दिखलाने को
बहुत गहरी..
*** राजीव रंजन प्रसाद
बिल्कुल!!!
एक दम नई शैली में बहुत सुंदर प्रस्तुति…क्या भाव है…उद्गार है…और साथ-साथ दर्शन भी जो आपकी हर रचना में अवश्य रुप में छिपी रहती है…।
Post a Comment