Friday, March 9, 2007

आपके चित्र- मेरी नजर

महिला दिवस आया और ढेरों बधाईयाँ हवा में उड़ीं. क्या त्रासदी है कि वर्ष के केवल एक दिन ही महिलाओं को याद किया जाता है जबकि एक पल भी महिलाओं के किसी न किसी रूप के बिना असम्भव है. देर से ही सही , अपनी नजर से देखे हुए चित्र:-

मेरे मानस की इन वीथियों में कई, चित्र हैं आपके जगमगाये हुए
ज़िन्दगी के हैं जीवंत पल ये सभी, कैनवस पर उतर कर जो आये हुए
चाय की प्यालियाँ, अलसी अँगड़ाईयाँ, ढ़ूँढ़ते शर्ट या टाँकते इक बटन
मैने बस की कतारों में देखा तुम्हें, पर्स,खाने का डिब्बा उठाये हुए
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गुलमोहर, मोतिया चंपा जूहीकली, कुछ पलाशों के थे, कुछ थे रितुराज के
कुछ कमल के थे,थे हरर्सिंगारों के कुछ,माँग लाया था कुछ रंग कचनार से
रंग धनक से लिये,रंग ऊषा के थे, साँझ की ओढ़नी से लिये थे सभी
रंग आये नहीं काम कुछ भी मेरे, पड़ गये फीके सब, सामने आपके
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मुस्कुराने लगीं रश्मियाँ भोर की
-रंग हाथों की मेंहदी के, जब आपके
द्वार की अल्पनाओं में उतरने लगे
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क्षण दुपहरी के श्रन्गार करने लगे
झूमने लग पडीं जूही चंपाकली
रंगमय गुलमोहर हो दहकने लगे
यूँ लगा फिर बसन्ती नहारें हुईं
इन्द्रधनुषी हुईं सारी अँगनाईयाँ
रंग हाथों की मेंहदी के, जब आपके
द्वार की अल्पनाओं में उतरने लगे
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आपके ख्याल हर पल मेरे साथ थे
सोच में मेरी गहरे समाये हुए
मेरी नजरों में जो थे सँवरते रहे
चित्र थे आपके वे बनाये हुए
साँझ शनिवार,श्रन्गार की मेज पर
-औ' बनाते रसोई मे खाना कभी
अपना आँचल कमर में लगाये हुए--

भोर रविवार को लेते अँगडाइयाँ
औ' बनाते रसोई मे खाना कभी
अपना आँचल कमर में लगाये हुए

4 comments:

अनूप शुक्ल said...

सही लिखा आपने। हम बिना महिलाऒं के कहां रह पाते हैं। वे भी हमारे बिना कहां । चलिये अब रोज मनाते हैं ये दिवस!

Anonymous said...

क्या कहूं आपकी रच्ना ने भावविभोर कर दोय.. सचमुच नारी के कई रंग हैं और भावों के भी..काश! सारी नज़रें ऐसी हो जायें तो फ़िर जरूरत ही नहीं की महिला दिवस जैसे दिनों की.. कविता की हर पंक्ति में सौन्द्र्य छलक रहा है.. बहुत प्यारी रचना .. धन्य्वाद..

Udan Tashtari said...

महिला दिवस को समर्पित--यूँ कहें महिलाओं को समर्पित-वाकई विशेष है, बहुत बधाई!!

Anonymous said...

बहुत ही सुन्दर! ख़ास कर पहला ...और अंतिम मुक्तक...

"चाय की प्यालियाँ, अलसी अँगड़ाईयाँ, ढ़ूँढ़ते शर्ट या टाँकते इक बटन
मैने बस की कतारों में देखा तुम्हें, पर्स,खाने का डिब्बा उठाये हुए"
:) :) :)
"साँझ शनिवार,श्रन्गार की मेज पर -औ' बनाते रसोई मे खाना कभी
अपना आँचल कमर में लगाये हुए--
भोर रविवार को लेते अँगडाइयाँ
औ' बनाते रसोई मे खाना कभी
अपना आँचल कमर में लगाये हुए"

वाह! वाह! वाह!
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आपकी नजरें हरदम सलामत रहें, हाथों को हम उठा ये दुआ कर रहे हैं
दर्द-ए-दिल हम को देता है झूठा सनम, उससे क्या लें दवा मशविरा कर रहे हैं.
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और क्या कहें इससे ज़्यादा !