
पता नहीं इस बार होली के रंगों में क्या मिला था, या शायद यह होली की स्पेश ठंडाई का असर है कि वाद-विवाद की जोग लिखी पत्री गली मोहल्ले में घूमती रही. अब क्योंकि हर सिक्के और तस्वीर के दो पहलू होते हैं तो हर बात का समर्थन और विरोध होना उतना ही अपेक्षित है जितना कि दिन रात का होना. जहाम तक साहित्य की बात है, जब वह धर्म और राजनीति की चर्चा पर आ जाता है तो विवादास्पद हो ही जाता है. विबाद इस पर भी उठता है कि वह साहित्य है या नहीं . चलें हम इस विवाद में नही पड़ते. आप कहो अपनी और हम कहें अपनी
होंठ खुलते ही वे चुप कराने लगे
यों हमें इस तरह आजमाने लगे
बात हमने जो दो पंक्तियों में कही
आपको उसमें शायद ज़माने लगे
हमने हाथॊं में अपने लिया आईना
आप नजरें हमीं से चुराने लगे
हमने तलवार की ओर देखा ही था
आप कैसे कबूतर उड़ाने लगे
राजपथ पर रखोगे कदम किस तरह
देख रफ़्तार ही लड़खड़ाने लगे
हमने सोचा कि मौसम बदल जायेगा
इसलिये आज गज़लें सुनाने लगे
3 comments:
हमने सोचा कि मौसम बदल जायेगा
इसलिये आज गज़लें सुनाने लगे
--सोच तो बहुत बेहतर है, मगर लोग समझें तब न!!
आपने अपना काम कर लिया...अब आगे देखा जायेगा.गज़ल बढ़िया बन गई है!! :)
राकेश जी,
मैं भी वही लिखने वाला था जो समीर भाई ने लिखा है पर नज़र पड़ गई… एकदम झकास गज़ल लिखी है!!
बहुत बहुत सुन्दर....
हर शब्द अपनी जगह एकदम उपयुक्त....
और भाव के तो क्या कहने.....
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