पिछले कुछ दिनों में कई रचनायें पढ़ीं. दिव्याभ और साध्वी रितु के दॄष्टिकोण और अन्य कई चिट्ठाकारों के अनुभव, शिकायत और नजरिये से प्रेरित होकर कुछ पंक्तियों का संयोजन स्वत: ही हो गया है.
आपकी प्रतिक्रिया अपेक्षित है:-
एक तुम्हारा अनुग्रह पाकर भक्ति भावना जागी मन में
वरना भटक रहे जीवन को कोई दिशा नहीं मिल पाती
इस मन के सूने मरुथल में तुम बरसे बन श्याम घटायें
एक तुम्हारी कॄपादॄष्टि से सरसीं मन की अभिलाषायें
इस याचक को बिन मांगे ही तुमने सब कुछ सौंपा स्वामी
फिर जीवंत हुईं हैं जग में कॄष्ण-सुदामा की गाथायें
एक तुम्हारी वंशी के इंगित से सरगम जागी जग में
वरना बुलबुल हो या कोयल कोई गीत नहीं गा पाती
करुणा सूर्य तुम्हारा जब से चमका मेरी अँगनाई में
हर झंझा का झौंका, आते ढल जाता है पुरबाई में
नागफ़नी के कांटे हो जाते गुलाब की पंखुरियों से
गीत सुनाती है बहार, हर उगते दिन की अँगड़ाई में
एक तुम्हारा दॄष्टि परस ही जीवन को जीवन देता है
केवल माली की कोशिश से कोई कली नहीं खिल पाती
तेरी रजत आभ में घुल कर सब स्वर्णिम होता जाता है
मन पागल मयूर सा नर्तित, पल भी बैठ नहीं पाता है
तू कवि तू स्वर, भाषा,अक्षर,चिति में चिति भी तू ही केवल
तेरे बिन इस अचराचर में अर्थ नहीं कोई पाता है
तेरे वरद हस्त की छाया, सदा शीश पर रहे हमारे
और चेतना इसके आगे कोई प्रार्थना न कर पाती.
3 comments:
तेरे वरद हस्त की छाया, सदा शीश पर रहे हमारे
और चेतना इसके आगे कोई प्रार्थना न कर पाती.
--बहुत खूब. बस यही हमारी प्रार्थना आपसे भी है, प्रभु.
एक तुम्हारा दॄष्टि परस ही जीवन को जीवन देता है
केवल माली की कोशिश से कोई कली नहीं खिल पाती
तेरे वरद हस्त की छाया, सदा शीश पर रहे हमारे
और चेतना इसके आगे कोई प्रार्थना न कर पाती.
...ये पक्तियाँ बेहद पसंद आई...
शानू
मैं तो दिवान होकर नाच रहा इस मधुर अराधन में
प्रभु कि भक्ति वियोग में भावना अमित हुई इस नव जीवन में…॥
बहुत ही सुंदर्…। कुछ ज्यादा नहीं कहा जा सकता बस मौन में ही आनंद……………………।
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